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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ४६ अधिकांशतः यह उपसर्ग परिसन्धायी स्तरतान्तव पाक ( periarticular fasciofibrositis ) के रूप में पहले सन्धि के बाहर प्रारम्भ होता है जिसमें विस्तृत पाकः पाया जाता है और वहां पर इसको लस्य या पूय स्राव में प्रमेहाणु प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । उसके बाद श्लेष्मघरकला में पाक जाता है । इसके कारण तीव्र परिसन्धायी तन्तूस्कर्ष ( periarticular fibrosis ) होजाता है जो एक कूट सन्धिस्थैर्य ( false ankylosis ) का कारण बनता है जिसके कारण एक चेष्टावन्तसन्धि अल्पचेष्टसन्धि में बदल जाती है । नैदानिक दृष्टि से सुजाक या प्रमेहजन्य सन्धिपाक के दो भेद मिलते हैं १. एकसन्धिज (monarticular ) —जो प्रायः बड़ी सन्धि में होता है जो सुजाक ( पूयमेह ) की तीव्रावस्था में प्रायः मिलता है और सपूय होता है । २. बहुसन्धिज (polyarticular ) —– जो प्रायः छोटी छोटी सन्धि जैसे मणिबन्ध, विशेष करके उरः फलक और अक्षकास्थि के बीच की सन्धि, कीकस सन्धियाँ, पादशलाका सन्धियों में जीर्ण सौम्य उपसर्ग के परिणामस्वरूप होता है । इसमें सन्धिगुहा में पूय नहीं पाया जाता । यदि पूय मिलता भी है तो परिसन्धि प्रदेश में होता है । उपसर्ग लगने के २०-२० वर्ष बाद तक यह देखा जासकता है 1 प्रमेहजन्य सन्धिपाक में घोर वेदना होती है। इसकी लाली सन्धि से दूर तक देखी जाती है। एक सीमा तक इसमें सुधार होकर फिर रोग बना रहता है और अंग विकृत हो जाता है । आधुनिक आविष्कारों ने उन विकृतियों को दूर करने में बहुत कुछ भाग लिया है । आन्त्रिकज्वरजन्य सन्धिपाक ( Typhoid arthritis ) - मोतीझरा या आन्त्रिकज्वर के समाप्ति काल से कुछ पूर्व प्रारम्भ होता है इसमें एक या दो सन्धियाँ प्रभावित होती हैं । पूय बनता है और उसमें आन्त्रिक दण्डाणु मिलते हैं । 1 ग्रहणीजन्य सन्धिपाक ( Dysenteric arthritis ) - सज्वर ग्रहणी या austral ग्रहणी ( bacillary dysentery ) के उपद्रवस्वरूप बड़ी बड़ी कई सन्धियों में एक साथ होने वाला रोग है । सन्धियाँ खूब सूजती हैं और उनमें प्रचण्ड वेदना होती है और रोगी हिल भी नहीं सकता । मा और फिरंग का सन्धियों पर जो प्रभाव पड़ता है उसे उन्हीं के प्रकरणों में बतलाया जावेगा | आमवातजन्य सन्धिपाक ( Rheumatic arthritis ) तीव्र और अनुतीत्र दो प्रकार का विशेष होता है, तीव्र का प्रारम्भ सहसा होता है और वह बड़ी सन्धियों को अधिक प्रभावित करता है । पहले रोग एक सन्धि में उठता है फिर वहाँ से किसी भी नियम को न मानता हुआ किसी भी सन्धि में चला जाता है इस प्रकार एक सन्धि से दूसरे सन्धि में पाक चल पड़ता है । इसमें उत्स्यन्द के साथ तीव्र शूल होता है ऊपर की त्वचा लाल और सूजी होती है । सन्धि की गति करना कठिन होता है परन्तु ५ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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