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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८ विकृतिविज्ञान कास्यकर्णमलपिडकोलिकापिडकानाम्, अङ्गवेदना लोहितनीलपीतश्यावानामाचिष्मतां दुष्टानाञ्च रूपाणां स्वप्ने सन्दर्शनमभीक्ष्णमिति लोहितपित्त पूर्वरूपाणि भवन्ति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्न की अभिलाषा न होना, भोजन के उपरान्त जलन, सिरके जैसी गन्ध और रस युक्त डकारों का आना, बार-बार वमन होना, रोगी का बीभत्स हो जाना, स्वरभेद, गात्रों में अवसाद, शरीर में दाह होना, मुख से मानो घूँआ निकलता हो, मुख से लोहा, रक्त, मछली जैसी या आमगन्ध निकलना, शरीराङ्गावयव - मल-मूत्र-स्वेद - लारनासास्राव - मुखमल - कर्णमल - नेत्रमल तथा पिडकाओं का लाल नील पीला श्याव अग्नि के समान चमकदार या विकृत स्वरूप वाला हो जाना तथा इनका स्वप्न में बार-बार देखना यह रक्तपित्त के पूर्वरूप होते हैं । तथा उपद्रवास्तु खलु नियताः दौर्बल्यारोचकाविपाकश्वासकासज्वरातिसार शोषशोथपाण्डुरोगाःस्वरभेदश्च । इस दृष्टि से दुर्बलता, अरुचि, अन्न के पाक में कष्ट होना, श्वासफूल जाना, खाँसी हो जाना, ज्वर - अतीसार शोष, शोथ पाण्डुरोग और स्वरभेद ये उपद्रव रूप में अवश्य मिलते हैं । सुश्रुत ने इन्हीं को निम्न श्लोकों द्वारा व्यक्त किया है -- दौर्बल्यश्वासकासज्वरवमथुमदाः पाण्डुता दाहमूर्च्छा भुक्ते घोरो विदाहस्त्वधृतिरपि सदा हृद्यतुल्या च पीडा । तृष्णा कण्ठस्यभेदः शिरसि च तपनं पूतिनिष्ठीवनं च । भक्तद्वेषोऽविपाको विकृतिरपि भवेद् रक्तपित्तोपसर्गाः ॥ इस प्रकार हम आचार्यों के द्वारा रक्तक्षय के कारक तत्वों द्वारा उत्पन्न लक्षणों को अप्रत्यक्षतया अध्ययन कर सकते हैं । रक्तार्श और रक्तातीसार के उपद्रवों के रूप में आचार्यों ने जो लक्षण गिनाए हैं वे भी इसी कोटि में आते हैं हस्ते पादे मुखे नाभ्यां गुदे वृषणयोस्तथा । शोथो हृत्पार्श्वशूलं च यस्यास्याध्योऽर्शसो हि सः ॥ हृत्पार्श्वशूलं संमोहरछर्दिरङ्गस्य रुग्ज्वरः । तृष्णा गुदस्य पाकश्च निहन्युर्गुदजातुरम् ॥ क्षपयन्ति हि ॥ आदि तृष्णारोचकशूलार्तमतिप्रसुतशोणितम् । शोधातिसारसंयुक्तमर्शासि आचार्यों ने जो पाण्डुरोग का वर्णन किया है वह रक्तक्षय का ही वर्णन है । रक्त की कमी के कारण मानव शरीर का वर्ण पाण्डुवर्ण का या विवर्ण हो जाता है उसी के अनुसार यह नामकरण किया गया है। लिखा भी है दोषाः पित्तप्रधानश्च यस्य कुप्यन्तु धातुषु । शैथिल्यं तस्य धातूनां गौरवञ्चोपजायते ॥ ततो वर्णबलस्नेहा ये चान्येऽप्योजसो गुणाः । व्रजन्ति क्षयमत्यर्थं दोषदृष्यप्रदूषणात् ॥ सोऽल्परक्तोऽल्पमै दरको निःसारः शिथिलेन्द्रियः । वैवर्ण्य भजते ॥ तथा स पाण्डुरोग इत्युक्तस्य लिङ्गं भविष्यतः । हृदयस्पन्दनं रौक्ष्यं स्वेदाभावः श्रमस्तथा || सम्भूतेऽस्मिन् भवेत् सर्वः कर्णक्ष्वेडी हतानलः । दुर्बलः सदनोऽन्नद्विट् श्रमभ्रमनिपीडितः ॥ गात्रशूलज्वरश्वासगौरवारुचिमान् नरः । मृदितैरिव गात्रैश्व पीडितोन्मथितैरिव ॥ शूनाक्षिकूटो हरितः शीर्णरोमा हतप्रभः । कोपनः शिशिरद्वेषी निद्रालुः ठीवनोऽल्पवाक् ॥ पिण्डिकोद्वेष्टक ट्यूरुपादरुक्सदनानि 1 स्युरध्वारोहणायासैः ॥ उपरोक्त वर्णन स्पष्टतः प्राचीनों की दीर्घकालीन निरीक्षणशक्ति का प्रागट्य करता है । च For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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