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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६० विकृतिविज्ञान प्रथम त्वचा में उत्पन्न होते हैं । यदि त्वचा में अनेक वृद्धियां देखने में आवें चाहे वे रंगीन हों या नहीं तो भी काल्यर्बुद का सन्देह किया जाना चाहिए। यदि इस रोग से एक नेत्र नष्ट हो जाय और यकृत् प्रवृद्ध हो तो नेत्रीय काल्यर्बुद की कल्पना की जा सकती है। साध्यासाधता की दृष्टि से यह रोग मारक है पर अत्यधिक घातक हो ऐसा लेकर नहीं चलना चाहिए । इस रोग से पीडित एक व्यक्ति दो से तीन वर्ष पर्यन्त जी सकता है ( ब्वायड) । यदि स्थानिक वृद्धि के साथ-साथ ही समीपस्थ लसग्रन्थियाँ भी प्रभाव ग्रस्त होकर प्रवृद्ध हो जावें तो भी उनका उच्छेद कर देने से प्राणरक्षा की जा सकती है ऐसा आधुनिक वैज्ञानिक बतलाते हैं । (६) संयुक्तार्बुद या भ्रौणार्बुद ( Teratomas ) संयुक्तार्बुद या भ्रौणार्बुद का अर्थ अनेक ऊतियों से निर्मित अर्बुद होता है इसमें शरीर में पाई जाने वाली सभी ऊतियों के कोशा कभी-कभी तो मिल सकते हैं। इसके कारण अन्य अर्बुदों में और इनमें बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है जो यह प्रगट करता है कि ये भ्रूण ऊतिओं द्वारा उत्पन्न होते हैं । प्रसंगोपरान्त शुक्रार्तव संयोग के बहुत अल्पकालोपरान्त ही इस अर्बुद के बीज बुव जाते हैं और गर्भविकास की बहुत प्रारम्भिकावस्था से अथवा उसके पश्चात् ही यह अर्बुद आरम्भ करता है । विश्वामित्र की सृष्टि रचना की तरह ऐसा लगता है कि मानो भौणार्बुद के रूप में एक नवीन व्यक्ति की रचना की जा रही हो जिसमें साधारणतः शरीर में पाई जाने वाली सभी ऊतियों के बीज विद्यमान होते हैं । ये अर्बुद हैं भी या नहीं इसमें भी आज पर्याप्त सन्देह है तथा इनकी उत्पत्ति के हेतु को ठीक ठीक प्रकट करना भी आज तक एक समस्या बना हुआ है । कभी-कभी तो यह स्त्री की गर्भावस्था में एक गर्भ के साथ जुड़वा के स्थान पर मिलता है और कहीं-कहीं यह व्यक्ति की प्रगल्भावस्था में भी उत्पन्न होता है और ऐसा ज्ञान होता है कि इस अर्बुद की उत्पत्ति के कारणभूत श्रण कोशा प्रसुप्तावस्था में पर्याप्त काल तक पड़े रह कर इस अवसर पर उत्पन्न हो गये हैं । 1 णार्बुद शरीर की मध्यरेखा में सामने की ओर अथवा पीछे की ओर कहीं भी पाया जा सकता है या लैङ्गिक ग्रन्थियों में ( in sex glands ) मिलता है । जब दो मूढ गर्भ 'जुड़वा उत्पन्न होते हैं तो उनके या तो पेट और छाती एक दूसरे से जुड़े हुए आते हैं या त्रिके जुड़ी होती हैं । इन्हीं स्थलों ( शरीर की मध्यरेखा अथवा त्रिकस्थानादि ) में णार्बुदोत्पत्ति होती है। इस कारण यदि कोई यह मत रखे कि संयुक्तार्बुद दो यमजों ( twins ) की उत्पत्ति का असफल प्रयास मात्र है तो अधिक अशुद्ध नहीं माना जा सकता । भ्रूण ऊति को विधिवत् रखने वाला अंशविशेष जब अनुपस्थित रहता है तभी ऐसा हो सकता है। इसी से सब प्रकार की उतियाँ किसी न किसी प्रकार मिली हुई उत्पन्न हो जाती हैं । कुछ का विचार यह भी है कि शुक्रार्तव संयोगोपरान्त जो युक्तूतावस्था ( morula stage ) आती है और कोशाओं का विभजन बढ़ी द्रुतगति से चलता रहता है तो उस समय कुछ युक्ताखण्ड ( blastomere ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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