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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५२ विकृतिविज्ञान वातश्लेष या चेताधारी ऊति के अर्बुद को श्लेषार्बुद (glioma ) कहा जाता है । अब हम इन अर्बुदों का संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करेंगे: वाततन्तुसङ्कटार्बुद-वाततन्त्वर्बुद-ये दोनों वातनाडियों के ऊपर चढ़ी संयोजी ऊति की कंचुकों से बनते हैं । इनमें वाततन्तुसंकटाबंद मारात्मक तथा वाततन्वर्बुद साधारण अर्बुद है। अतः ये वात उति से कोई सम्बन्ध न रख कर संयोजी ऊति के अर्बुद हैं अतः इनका वर्णन पीछे तन्त्वबंद के प्रकरण में देखा जा सकता है। वातनाड्यर्बुद-नाडीकन्दाणकार्बुद वातनाडीकोशाओं और वातनाडीसूत्रों से बननेवाला अर्बुद है। पहले से उपस्थित वातति से इसका उदय होता है यह विमज्जि ( medullated ) नाडीतन्तुओं के पुंज द्वारा बनता है। रचना में यह मस्तिष्क सौषुम्निक वातनाडियों द्वारा बनते हैं। अस्थिउच्छेदात्मक वातनाड्यर्बुद ( amputation neuroma ) कटी हड्डियों के सिरों पर फैली हुई पिडिकाओं के रूप में मिलते हैं वे अर्बुद न होकर परिस्थितिजन्य रूपान्तर कहे जा सकते हैं। वातकन्दिकार्बद-वात ऊति की कन्दिकाओं (ganglia ) के कोशा और वातनाडी सूत्रों के द्वारा इनकी उत्पत्ति होती है। ये प्रायः स्वतन्त्र नाडीमण्डल ( sympathetic nervous system ) से निकलते हैं और त्वचा में पाये जाते हैं। वे उदर या उरस में स्वतन्त्र नाडीमण्डल की नाडियों या चक्रों के मार्ग का अनुसरण करते हुए भी पाए जा सकते हैं। ये कभी कभी अधिवृक्कग्रन्थियों में भी हो सकते हैं। वातरुहार्बुद-यह अर्बुद चार वर्ष से नीची आयु के बालकों तक सीमित रहता है। इसका रूप संकटार्बुद से मिलता जुलता होता है अतः बालअधिवृक्कीय संकटार्बुद ( adrenal sarcoma of children ) के नाम से भी इसे कहा जाता है । इसका वर्णन हम पीछे संकटार्बुद के प्रकरण में कर चुके हैं। यह वातकोशाओं के पूर्वजों ( primitive nerve cells) द्वारा उत्पन्न होता है जिन्हें हम वातरुह ( neuroblasts ) कहते हैं और अधिवृक्क ग्रन्थियों की मज्जक में बनता है। यह बहुत मारात्मक होता है और अनेकों स्थलों पर विस्थायोत्पत्ति करता है । नाड्यनों के कुछ अर्बुद रंगित अर्बुद प्रकरण में जावेंगे अतः यहाँ केवल दृष्टिरुहार्बुद का वर्णन किया जावेगा। दृष्टिरुहार्बुद-इस अर्बुद को दृष्टिपटल (retina ) का वातश्लेषार्बुद (glioma of the retina) कहा जाता है। पर सम्भवतः यह शुद्ध वातरुहार्बुद न होकर दृष्टिपटलीय वातनाडीअों का अर्बुद होता है। इसे वातरुहार्बुद या वात अधिच्छदार्बुद कह कर भी पुकारा जाता है। यह शैशवकालीन रोग है और कौटुम्बिक प्रवृत्ति रखता है। दृष्टिपटल के भ्रूणकालीन कुछ कोशा जो बाद में प्रगल्भ न होकर अपना भ्रौणिक रूप ही रखते हैं उनसे यह बनता है इसी कारण इसे यह नाम दिया गया है। यह एक असाधारण प्रकार का अर्बुद है और इसमें तीन मुख्यताएँ ब्वायड बतलाता है: For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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