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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८४६ बुंद में जहाँ रक्त के लालकण ( red corpuscles) होते हैं वहाँ इसमें लसीका होती है और रक्तकण नहीं होते। ये सहज और अवाप्त (acquired) दोनों प्रकार के मिल जाते हैं। सहज जिह्वा में परमजिह्वता ( macroglossia) के रूप में ओष्ठ में परमोष्ठता ( macro. cheilia) के तौर पर और भगोष्ठ ( labium ) में उसकी अतिवृद्धि रूप में पाये जाते हैं। त्वचा में अन्य स्थलों पर भी वे मिल सकते हैं। ग्रीवा में उनके द्वारा एक अवस्था उत्पन्न होती है जिसे कोष्ठिक उदकार्बुद ( cystic hygroma ) कहा जाता है। जो अर्बुद उपरिष्ठ भागों में होते हैं वे उपसृष्ट भी हो सकते हैं और बणित भी। अवाप्त प्रकार में लसीकावाहिनियों का विस्फार त्वचा और उपत्वगीय उति में हुआ करता है। विशेष करके ऊरु और उरस क्षेत्र में इन स्थलों में उपत्वगीय ऊति में नारंगी के बराबर बड़े अर्बुद भी बन जाया करते हैं। एकाध वाहिनी के विदीर्ण होने से लसीका स्राव होकर भयानक स्थिति को जन्म दे सकता है। जिन क्षेत्रों से लसीकावाहिनियाँ अर्बुद में जाती हैं उनमें अर्बुद के ही समान स्थूलन ( thicken. ing ) देखा जा सकता है। यह स्थूलन त्वचा में चमकील ( wart ) का रूप भी धारण कर सकता है। वाहिनीरुहार्बुद ( Angioblastoma ) वाहिनीय अन्तश्छदार्बुद से उत्पन्न होने वाले मारात्मक अर्बुद बहुत ही कम देखने में आते हैं। परन्तु जब भी वे बन जाते हैं तो वे उन्हीं नियमों का पालन करते हैं जिनका अन्य वाहिन्यर्बुद करते हैं और उनकी रचना में अपूर्णतया निर्मित वाहिनियाँ देखी जाती हैं। इनका कोशाप्रकार, वाहिनीय अन्तश्छदीय कोशा होता है। इन कोशाओं का आकार और रूप विषम होता है और उनमें विभजनाङ्क विशेष करके देखे जाते हैं। वे लसवाहिनियों या रक्तवाहिनियों दोनों से बन सकते हैं। रक्तवाहिनियों द्वारा वे अधिकतर बनते हैं । इस कारण वे रक्तस्रावी होते हैं और उनकी प्रवृत्ति भी रक्तस्रावात्मक होती है। इनकी मारात्मकता बहुत कुछ परिवर्तनशील होती है और इनकी रचना की एकक अविशिष्ट रक्तवाहिनी ( atypical blood vessel ) हुआ करती है। वाहिन्यर्बुद और अङ्गविशेष वाहिन्यर्बुद बहुधा जिह्वा, यकृत् , वृक्कमुख अस्थि-ओष्ठ और स्तनों में पाये जा सकते हैं। जिह्वास्थ वाहिन्यर्बुद ( angiomata of the tongue ) एक साधारण प्रकार का अबंद होता है जो बालकों में सहज रूप में बहुधा बनता है । शोणवाहिन्यबंद चमकीले लाल रंग का अत्यधिक वाहिनीयुक्त मन्थरगति से उत्पन्न होने वाला अर्बुद होता है। कभी कभी यह बहुत बढ़ जाता है और उससे बहुत अधिक रक्तस्राव होता है। लसीका वाहिन्यबंद के कारण स्थूलजिह्वता ( macroglossia) हो जाती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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