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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८३५ ४. उपसन्धीय विमेदार्बुद ( subsynovial lipoma ) ५. उपपर्यस्थ विमेदार्बुद ( subperiosteal lipoma ) ६. परास्थीय विमेदार्बुद ( parosteal lipoma ) ७. अन्तर्गशीय विमेदार्बुद (intramuscular lipoma ) ८. उपस्तरीय विमेदार्बुद ( subfascial lipoma) रचना पर विचार करने से एक विमेदाबंद कोशाओं से निर्मित होता है। कोशाओं के अन्दर स्नेह ( fat ) भरा होता है साथ थोड़ी या बहुत तान्तव ऊति रहा करती है। इसके कोशा वपाऊति (adipose tissue) के सदृश परन्तु उससे कुछ बड़े होते हैं। उसकी न्यष्टि और प्ररस कोशाप्राचीर में दबे हुए रहते हैं इस कारण बड़ी कठिनाई से देखे जा सकते हैं। जैसा कि पहले बताया है एक संयोजी ऊति के द्वारा बनी हुई एक बहुत पतली कला अर्बुद के ऊपर चढ़ी रहती है। इसी में से कई पटियाँ (septa) निकल कर अर्बुद को कई खण्डिकाओं में विभक्त कर देती हैं। तान्तव पटियों में होकर ही रक्तवाहिनियाँ पहुँचती हैं जिनके किनारे-किनारे अर्बुदिक ऊति बढ़ती रहती है। प्रत्यक्ष देखने से विमेदार्बुद का वर्ण पीत होता है। वह खण्डिकायुक्त ( lobulated ) होता है, उसके चारों ओर तान्तव प्रावर चढ़ा होता है। जब इसके ऊपर की त्वचा को हाथ से अलग करने का यत्न किया जाता है तो उसमें गढे ( dimple ) पड़ जाते हैं जो यह स्पष्ट करता है कि वे त्वचा से सम्बद्ध होते हैं। काटने पर उनकी आकृति वपौति जैसी होती है जिनके बीच बीच में तान्तव पटियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। विमेदाधुंद कभी विनाल और कभी सनाल देखे जाते हैं । संक्षेप में एक विमेदार्बुद मृदु, परिलिखित ( cirumscribed ) खण्डिकायुक्त प्रावरित अर्बुद होता है जिसे उसके प्रावर में से सरलतया निकाला जा सकता है । यह भीतरी कला ( deep fascia) से सम्बद्ध नहीं रहता पर त्वचा को हटाने पर त्वचा में गर्तिकाओं का पड़ना उसकी उससे लग्नता प्रकट करता है। विमेदाधुंद यद्यपि बहुत निर्दोष अर्बुद है पर जब यह पश्चउदरच्छदीय या परिवृक्कीय होता है तब द्रुतगति से वृद्धि करके इतस्ततः भरमार कर सकता और हानि पहुँचा सकता है । ऐसी अवस्था में इसे विमेदसंकट ( lipo-Sarcoma) कहा जाता है । विमेदोत्कर्ष ( lipomatosis ) तथा विमेदार्बुद में पर्याप्त अन्तर होता है। विमेदोत्कर्ष एक पोषणिकाग्रन्थिजन्य रोग है जब कि यह एक अर्बुद है जो एक स्थानविशेष पर ही सीमित रहता है। विमेदोत्कर्ष में ग्रीवा अथवा अन्य किसी अंग की योजी ऊति में स्नेह का संचय हो जाता है। यदि मेद का आहार में अभाव हो जावे तो विमेदोत्कर्ष द्वारा संचित मेदभंडार रिक्त हो जाता है परन्तु विमेदाधुंद में सञ्चित स्नेह ज्यों का त्यों बना रहता है। पेशियों, कलाओं, कण्डराओं, पर्यस्थ, उदरच्छद, सन्धियों, मुख, ग्रसनी, स्वरयन्त्र, आन्त्र आदि स्थानों में कहीं भी विमेदार्बुद बन सकते हैं। आँतों में इनके कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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