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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८३३ कारण यथावश्यक गर्भाशय के प्रसार में बाधा का होना और दूसरा गर्भाशयान्तश्छद पाक का उत्पन्न हो जाना होता है। अगर गर्भाशय की वृद्धि यथावश्यक होती जाती है तो श्रोणितट के ऊपर तन्तुरूप का जाना नहीं हो पाता और फिर गर्भाशय का अवबन्ध (incarceration) हो जाता है। गर्भाशय ग्रीवास्थ तन्तुरूप प्रसवकाल में पर्याप्त बाधा उत्पन्न कर देते हैं। प्रसव होने के पश्चात् अपरापातनार्थ जितना अधिक गर्भाशय-सङ्कोच होना चाहिए वह नहीं हो पाने से प्रसवोपरान्त रक्तस्त्रावाधिक्य पाया जाता है। प्रसवकाल में कभीकभी तन्तुरूपों को भी आघात पहुँच सकता है । आधात के पश्चात् वे उपसष्ट होकर और भी अधिक हानि पहुंचा सकते हैं और प्रसूतिकालीन रोगाणुता ( sepsis) उत्पन्न हो जाया करती है जिसके परिणाम सदैव गम्भीर हुआ करते हैं। __तन्तुरूपों में निम्न विहासात्मक परिवर्तन प्रायशः मिला करते हैं क्योंकि तन्तुरूपों में रक्तपूर्ति बहुत कम होने से उनमें विह्रास सरलतया हो जाया करता है। यह विहास साधारक अपोषक्षय, काचर विहास, श्लिषीय विह्रास, चूर्णीयन, लाल विहास या मारात्मक विहास में से कोई सा हो सकता है। साधारण अपुष्टि रजोनिरोधकाल में जब गर्भाशय का भी स्वरूप छोटा और क्षीण होने लगता है उस समय देखी जाती है। उसके साथ साथ स्नैहिक परिवर्तन भी मिलते हैं । कभी कभी वे पुनः बढ़ने लगते हैं। तन्तुरूपों में काचरीकरण बहुत करके देखा जाता है। उसके पश्चात् श्लेषाभ विहास और बाद में तरलन (liquefaction) हुआ करता है । इसके आगे कोष्ठकोत्पत्ति होती है। कोई भी तन्तुरूप इन विहासों से विरहित देखा नहीं जाता। काच जैसे काचर विहासग्रस्त भाग बहुधा देखने में आते हैं। काचरीय विहास के पश्चात् चूर्णीयन ( calcification ) भी मिल सकता है। यह परिवर्तन प्रौदाओं तथा वृद्धाओं के तन्तुरूपों में पाया जाता है। तरुणियों में यह बहुत कम मिलता है । चूीयन का चित्र क्ष-किरणों द्वारा भी प्रकट हो जाता है। लाल विहास (red degeneration) नामक परिवर्तन इन्हीं तन्तुरूपों में विशेष करके पाया जाता है। यह आम तौर पर गर्भावस्था अथवा प्रसवकाल में होता है, वैसे अप्रसवाओं और वन्ध्याओं के तन्तुरूपों में भी यह मिल ककता है। इसमें सहसा उतिनाश होता है। रुग्णा को तीव शूल और कभी कभी ज्वर भी हो जाता है। तन्तुरूप का सम्पूर्ण या अंशतः वर्ण लाल या गहरा बभ्रु हो जाता है, वह बहुत मृदुल भी हो जाता है। यह वर्ण रक्त तथा ऊतियों के आत्मपचन का प्रमाण है । अवरोधात्मक शोफ के साथ-साथ सिराओं का घनास्रोत्कर्ष पाया जाता है। ये परिवर्तन बहुधा तन्तुरूप के केन्द्रिय भाग में आरम्भ होते हैं । यह भाग अन्तरालित ऊति से बना होता है । इस कार्य में रोग के जीवाणुओं का कोई भाग रहता हो इसका कोई पुष्ट प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका। अतः केवल शोण-विक्षतों के द्वारा ही यह बनता है ऐसा मान लेना पड़ता है। गर्भावस्था में गर्भाशय के संकोच होते रहते हैं जिसके कारण तन्तुरूपों को जाने वाली रक्तवाहिनियाँ संकुचित हो जाती हैं और उनमें होकर केन्द्रिय भाग तक रक्त For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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