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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ विकृतिविज्ञान ( collagenous fibrils) भी प्रकट होने लगते हैं जो लसप्रन्थ्यर्बुद में तन्तूत्कर्ष का अनुमान कराते हैं बाद में बहुन्यष्टि और उषसिप्रिय कोशाओं को भी अल्प संख्या में देखा जा सकता है। रोगी में रक्ताल्पता बढ़ती जाती है और कभी कभी ज्वर आने लगता है। रोग के चित्र को देखकर ऐसा लगता है कि वह हाजकिनामय ही है । इसे हाजकिनीय संकट ( Hodgkin's sarcoma) भी पहले कह कर पुकारते थे । अर्थात् लसग्रन्थ्यर्बुद में दुष्ट लक्षणोत्पत्ति हो गई हो ऐसा मानते थे। पर ऐसे उदाहरण नहीं मिलते जिनमें हाजकिनामय ही दुष्ट या मारात्मक बन गया हो। इस रोग की प्रथमोत्पत्ति किसी लसग्रन्थि में होती है वहाँ से फिर इसका आक्रमण यकृत् , प्लीहा, फुफ्फुस तथा अस्थि-मजा तक जा सकता है। रोग की दिशा हाजकिनामय से कहीं अधिक दुत हुआ करती है। इस कारण यह कुछ महीनों की अपेक्षा कुछ सप्ताहों का ही विषय रह जाता है। इसके रक्तचित्र में अर्बुद कोशा नहीं पाये जाते हैं। (४) महास्रोतोय सङ्कटार्बुद महास्रोत के विभिन्न अंगों में सङ्कटार्बुद पाये जा सकते हैं। जिह्वा, तुण्डिका, अन्नप्रणाली ( oesophagus ), आमाशय ( stomach ) तथा अन्त्र ( intestines ) मुख्यतया आते हैं । अब हम इन्हीं का संक्षिप्त विचार करेंगे। १. जिह्वास्थ सङ्कट-जीभ में संकटार्बुद बहुत ही कम मिलता है। यदि मिलता भी है तो बालकों में अधिकतर पाया जाता है। यह गोलकोशीय, पेशीय तन्तुसंकट ( round-celled muscular fibrosarcoma) होता है। यह जिह्वा में बहुत गहराई पर उत्पन्न होकर एक दृढ़, गोल, प्रत्यास्थ शोथ का रूप धारण कर लेता है जो अति शीघ्र व्रणित और कवकान्वित ( fungating ) हो जाता है । पहले शूल अत्यल्प रहता है जो आगे चलकर पर्याप्त बढ़ जाता है। निदान में फिरंगार्बुद ( gumma) का पहले भ्रम होता है और जब तक इसका एक भाग काट कर अण्वीक्ष के नीचे न देख लिया जावे तब तक यथार्थता का बोध करना कठिन रहता है। २. तुण्डिकास्थ संकट-तुण्डिका ग्रन्थियां लसाभ ऊति द्वारा बनती हैं अतः इसका वर्णन उसी के साथ मान लेना चाहिए पर यतः मुख से गुद तक महास्रोत कहलाता है और इसी मार्ग में यह पायी जाती है अतः इसका वर्णन यहां भी किए देते हैं । यह संकट किसी भी अवस्था में उत्पन्न हो सकता है। लससंकट (lympho. sarcoma ) प्रकार का यह होता है। इसमें तुण्डिका प्रवृद्ध असिताभ लालवर्ण की बहीरेखा में चिकनी तथा गाढता में दृढ हो जाती है। आरम्भ में यह चलनशील होता है परन्तु आगे जाकर स्थिर हो जाता है। इसके कारण प्रैविक लसग्रन्थियाँ तक प्रवृद्ध हो जाती हैं । दुतवेग अत्यधिक वृद्धि तथा भरमार द्वारा इसका निदान होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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