SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 896
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८१३ लगेगी । इस रोग में अस्थि का केन्द्रभाग फैल जाता है तथा बाह्यक तो कर्पर ( shell ) मात्र रह जाता है इस कारण एक आकस्मिक अस्थिभन्न के कारण ही इस शूलरहित अवस्था का बोध सर्वप्रथम होता है । अस्थि में इतस्ततः कोष्ठक बन जाते हैं जो उसे साबुन के झाग जैसा स्वरूप ( soap bubble appearance ) प्रदान करते हैं। ऐक्सरे (क्षकिरण) चित्र द्वारा स्थिति और भी सुस्पष्ट हो जाती है। इससे बड़ी सरलतापूर्वक निदान हो जाया करता है। इसमें एक विरलित बहुकोष्ठीय या बाह्यक बन्धनीयुक्त ( trabeculated ) चित्र देखा जाता है जो ऐसा मालूम पड़ता है मानो बड़े बड़े बबूलों के द्वारा वह बनाया गया हो, जिसमें बाह्यक ( cortex ) पतली पड़ती जाती है तथा जो समीप के अस्थिभाग तथा मृदुऊतियों से पृथक् स्पष्टतः दिखता है। ___ साधारणतया देखने से मृदुल, असित लाल, रक्तस्रावी पुंज के रूप में जिसमें कभी कभी पीत क्षेत्र भी हों यह देखा जाता है । इस पदार्थ को खुरचा जा सकता है और खुरचना ही इसका उपचार प्रायः माना जाता है। तेजातु विकिरण का कुछ रोगियों पर प्रभाव पड़ता है परन्तु कुछ पर नहीं पड़ पाता। अस्थि केन्द्रस्थली में कोष्ठोत्पत्ति हो सकती है तथा इस प्रकार बने हुए कोष्ठक में रक्त भर सकता है। रोगग्रस्त अस्थि का सिरा पर्याप्त फैल जाया करता है। . अण्वीक्षण करने पर अर्बुद में तीन प्रकार के कोशा पाये जाते हैं । तकरूपी कोशा, गोलकोशा तथा महाकोशा। जब अर्बद की वृद्धि बहुत वेग से होती है तब असंख्य गोलकोशा देखने में आते हैं। पर जब वृद्धि रुक जाती है तब तकुरूप कोशाओं की अधिकता अबंद में मिलती है। तर्कुरूपकोशाधिक्य अर्बुद को साध्यता की ओर ले जाता है। तान्तव अस्थिपाक ( osteitis fibrosa ) नामक रोग में भी ये विक्षत बनते हैं । कशेरुकाओं में बने वे महाकोशीयाबंद या अस्थिदलकार्बुद जो सरलोपचार से भी ठीक हो जाया करते हैं उनमें तर्करूप कोशा अधिकता से पाये जाते हैं। महाकोशा अस्थिदल प्रकार के बहुन्यष्टीय कोशा होते हैं। वे एक भाग में बहुत जमघट किए हुए रह सकते हैं तथा दूसरे भाग में इधर उधर थोड़े थोड़े छिटके हुए मिल सकते हैं। कणाव॒दों के महाकोशाओं और अस्थिदलकीय महाकोशाओं में अन्तर यह है कि यहाँ तो कोशा के अन्दर पाई जाने वाली अनेकों छोटी न्यष्टियां कोशा के केन्द्र की ओर रहती हैं जव कि कणावंद में वे परिणाह की ओर पाई जाती हैं। अस्थिजनक संकट के महाकोशाओं से भी ये बहुत भिन्न होती हैं जिनमें कुछ बड़ी विषमाकार न्यष्टियाँ पाई जाती हैं । यह अर्बुद अत्यधिक वाहिनीयुक्त होता है। (२) फुफ्फुस-सङ्कट (Sarcoma of the Lung) फुफ्फुस में प्रथमजात सङ्कटाबंद नहीं पाया जाता। विविध लक्षणों को देखकर जो लोग सङ्कट का निर्णय करते हैं वे अनघटित कोशा वाले कर्कट (anaplastic For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy