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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० विकृतिविज्ञान अवस्था (chronic suppurative condition) में परिणत हो जाता है जो अन्त में उपचार न करने पर मण्डाभ विहास में परिणत हो जाता है । रोगाणु सघन जरठ अस्थि ( dense sclerotic bone) के नवनिर्मित भाग के भीतर के अवकाश में घिर जाते हैं । इसी से फिर आगे चलकर जो विद्रधि बनती है उसे बौडीय विधि ( brodie's abscess ) कहा जाता है । ये विद्रधियाँ सघन अस्थि के मध्य के अवकाश में कुछ काल तक शान्त तथा कुछ काल तक सवेग सशूल देखी जाती हैं । कभी-कभी अस्थि में एकत्र पूय अस्थिसन्धि ( joints ) तक पहुँच जाता है वहाँ कुछ काल तक रहकर या तो प्रचूषित हो जाता है अथवा जीर्ण अस्थिसन्धिपाक ( chronic osteoarthritis ) में परिणत हो जाता है । घोर सपूय सन्धिपाक acute suppurative arthritis ) के रूप में पुंजगोलाणुजन्य अस्थिमज्जापाक प्रायः देखने में नहीं आता है । सार्वदेहिक उपद्रव दृष्टि से उपसर्ग पीडिता अस्थिमज्जा में स्थित केशालों में जो घनात्र होते हैं जब उनमें से कुछ शरीरगत रक्तसंवहन चक्र में चले जाते हैं तो पूयरक्तता ( pyemia ) अथवा रोगाणुरक्तता ( septicaemia ) नामक भीषण व्याधियों के कारण बनते हैं । अत्यधिक उपसर्ग होने पर मृत्यूपरान्त परीक्षा में शरीर के विभिन्न अंगों में विद्रधियाँ बनी हुई देखी गई हैं। ये विस्थानान्तरित विधियाँ ( metastatic abscesses) परिहृत् में पाई जाती हुई बहुधा देखी गई हैं। घोर अस्थिमज्जापाक सपूयपरिहृत्पाक ( suppurative pericarditis ) का भी कारण होता है । अस्थिमज्जापाक पुंजगोलाणुओं के अतिरिक्त निम्न अन्य रोगाणुओं से भी होना सम्भव है: : १. मालागोलाणु - इनके द्वारा उत्पन्न मज्जापाक में मृतास्थिलव निर्माण कम होता है पर ये अस्थिशिरीयकास्थि को नष्ट कर सन्धियों में पाक करने में बहुत निपुण होते हैं ये घातक स्वरूप के उपद्रव करने वाले होते हैं । २. फुफ्फुसगोलाणु - ये शिशुओं में फुफ्फुसपाक के पश्चात् मध्यकर्णपाक होने के कारण शंखास्थि में अस्थिमज्जापाक करने में निपुण होते हैं । मृतास्थिलव निर्माण में भी कम करते हैं । सन्धियों तक इनकी पहुँच तो होती है पर ये उन्हें शीघ्र छोड़ देते हैं । ३. आन्त्रदण्डाणु - आन्त्रिकज्वर ( मोतीझरा ) से पीड़ित रोगी को महीनों या वर्षों पश्चात् यह रोग होता हुआ देखा जाता है । पर्यस्थ के नीचे विद्वधियों का बनना मुख्यतः मिलता है । उपसर्ग अस्थि के बाह्य भाग पर ही रहने से मृतास्थिलव नहीं बनता । । ४. किरणकवक ( actinomycosis ) – इसके कारण हन्वस्थि में अस्थिमज्जापाक होता है । यह व्याधि कृमिदन्त द्वारा वहाँ तक पहुँचती है। कपोल पर कई नाडीव्रण इसी के कारण खुलते हैं जिनमें पतला पूय होता है और पूय में गन्धक के कण (sulphur granules ) जो इस उपसर्ग की विशेषता है अवश्य पाये जाते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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