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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०६ विकृतिविज्ञान मृदु तन्त्वर्बुद कहने को जी चाहता है। ऐसी अवस्था में सूत्रिभाजनाकों की खोज ही योग्य मार्ग को प्रकट करने में सहायता करती है । वातिक या वातनाडीय संकट ( Neuro sarcoma or neurogenic sarcoma.)-यह संकट वातनाडी के कंचुक ( sheath) द्वारा उत्पन्न होता है। यह वातिक तन्त्वर्बुद ( neurofibroma) का मारात्मक रूप है। यह अर्बुद न बहुत कम मिलता है और न बहुत अधिक। यह हाथ और पैरों की उपत्वक् अति और अन्तशीय उति में उत्पन्न होता है। आरम्भ में यह लघुकाय होता है तथा इसे हिलाया दुलाया जा सकता है। उस समय यह इतना साधारण दिखता है कि इसे थोड़ी विसंतता द्वारा चाकू से काट दिया जाता है पर कटने के बाद यह अपने असली रूप में आता है और एकदम बढ़ने लगता है। कई बार इस प्रकार उसके कटने के बाद उसके विस्थाय जब फुफ्फुस में पाये जाते हैं तब इसका वास्तविक ज्ञान हो पाता है । यदि चाकू द्वारा इसे न काटा जावे तो यह बहुत धीरे धीरे बढ़ता है। पहले तो यह स्थानिक होता है पर कई बार कटने के पश्चात् यह समीप की ऊतियों में भरमार करने लगता है। अण्वीक्षण से यह तन्तुसंकट सरीखा लगता है परन्तु लम्बोतरे कोशा विशिष्ट गट्ठों ( interwining bundles ) पूलों ( fasciculi ) या भुग्मियों ( whorls ) में होते हैं इसी से इसकी वातिक उत्पत्ति का अनुमान होता है परन्तु इसकी मारात्मकता का पता लगाना बड़ा कठिन होता है क्योंकि यह एक्सेरेज के लिए बड़ा प्रतिरोधी होता है। इसी तथ्य से इसका स्वरूपज्ञान होता भी है। __ अस्थिसंकट या अस्थिजनक संकट-यह प्रायशः होने वाला और अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सङ्कटाबंद है । इसका मुख्य कोशा अस्थिरुह (osteoblast) है । इस कोशा की अपेक्षा इसका ज्ञान अन्तर्कोशीय पदार्थकास्थि वा अस्थि द्वारा प्राप्त हुआ करता है। कास्थिसङ्कट (chondro-sarcoma )-साधारण कास्थिअर्बुद में जब मारात्मकता उत्पन्न हो जाती है तब उसकी वृद्धि द्रुत हो जाती है, उसके कोशाओं के आकार और स्वरूप में विषमता आ जाती है और सूत्रिभाजना खूब होने लगती है। इसी अवस्था को कास्थिसंकट कहा जाता है। यह उरःफलक या श्रोणि की अस्थि में उत्पन्न होता है। इसका आकार बहुत विशाल हो सकता है। यह रक्तवाहिनियों को आक्रान्त करके फुफ्फुस में विस्थायोत्पत्ति कर सकता है। कास्थिअर्बुद और कास्थिसंकट में अन्तर करना बहुत कठिन है। इस भेद को जानने में जितना रोगनिदान और लक्षण लाभ देता है उतना अण्वीक्षण नहीं। श्लिषीय विह्रास द्वारा सन्देहोत्पत्ति होती है। विमेदसङ्कट ( Lipo-sarcoma) यह भी पर्याप्त होता है । इसे ज्ञात करने के लिए स्नैहिक अभिरंजन आवश्यक है। जहाँ भी विमेद या चर्बी होती है वहीं यह हो सकता है परन्तु अन्तर्गशीयऊति, सन्धियों के समीप, पश्चउदरच्छद तथा पधवृक्कक्षेत्र में यह सर्वाधिक मिलता है। यह आरम्भ में प्रावरित होता है ऐसी अवस्था में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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