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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६७ अर्बुद प्रकरण अम्लरंज्य ग्रन्थ्यर्बुद के कारण इन कोशाओं की वृद्धि होने से पिशाचरोग (giantism ) तथा एक्रोमीगेली ( acromegaly ) नामक रोग हो जाता है । पीठरंज्य ग्रन्थ्यर्बुद के कारण होने वाले लक्षणों पर अभी समुचित प्रकाश नहीं पड़ा । उपर्युक्त तीनों प्रकार के ग्रन्ध्यर्बुद विह्वष्ट होकर कोष्ठीय बन जाते हैं तब उनमें अन्तरासर्गी लक्षण बन्द हो जाते हैं। परन्तु कोष्ठ के भार से पोषणिकाग्रन्थि के कार्य में बाधा पड़ जाया करती है। इ-तालुस्थ-तालु की ग्रन्थियों में कभी कभी ग्रन्थ्यर्बुद उत्पन्न हो जाया करता है । यह चिकना गुलाबी मकोय के बराबर होता है । न इसमें शूल होता है न वणन । यह धीरे-धीरे बढ़ता है। ई-शिरःस्थ-शिर ( scalp ) पर विशेषकर शङ्खप्रदेश पर ग्रन्थ्यर्बुद हो जाता है । यह प्रस्वेदग्रन्थियों में होता है और लाल या बैंगनी रंग का होता है । इस पर चमकदार पतली त्वचा चढ़ी होती है जिसके कारण इसे टमाटो अर्बुद भी कह देते हैं। वह कभी व्रणित और कवकित हो जाता है, उससे स्राव निकलता है और आकृति अधिच्छदीयार्बुद से मिलती जुलती हो जाती है। (ग) अधिच्छदीय ऊति के अन्य अर्बुद यहां हम तीन प्रकार के अर्बुदों का वर्णन करेंगे:(१) अतिवृक्कार्बुद ( Hypernephroma ) (२) जराय्वधिच्छदार्बुद ( Chorionepitheliona ) (३) दन्ताकाचार्बुद ( Adamantinoma ) (१) अतिवृकार्बुद इसे परमवृक्कार्बुद अथवा ग्रावित्झाद (Grawitz tumour ) भी कहा जाता है । ये सभी नाम बहुत पुराने हैं। १८८३ ई० में ग्रावित्झ नामक विद्वान ने अतिवृक्कार्बुद नाम से इसे पुकारा था। आज यह नाम लुप्त होता जा रहा है । ग्रावित्न का मूल विचार यह था कि भ्रूण में वृक के अन्दर अधिवृक्कग्रन्थि के बाह्यक के कुछ भाग समा जाने से यह अर्बुद बनता है। पर आज इस विचार को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। आज तो अतिवृक्काबुंद को वृक्कीय कर्कट माना जाता है और उसी नाम से हम इसका वर्णन पीछे कर चुके हैं। इस नाम के सम्बन्ध में ब्वायड लिखता है कि-'As the old name is based on a wrong theory it should really be given up, but it is so firmly entrenched that it is almost impossible to uproot it.' अर्थात् प्राचीन नाम एक गलत मत पर आधारित होने से उसे वास्तव में त्याग देना होगा परन्तु इसका प्रयोग हम इतना अधिक करते रहे हैं कि इसका मूलोच्छेद लगभग असम्भव सा हो गया है । ग्रावित्झ का तर्क यह है कि यह अर्बुद स्वच्छ, रसधानीयुक्त. For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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