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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ विकृतिविज्ञान इस पाक को अस्थि तथा मांस के अवरोध के कारण जब कोई द्वार या मार्ग नहीं मिलता तो रोगी इस व्याधि से अग्नि की तरह जलता है अस्थिमजा की वह ऊष्मा अत्यन्त उतिनाश ( tissue necrosis ) करती हुई व्यक्ति को कष्ट देती है। यह शल्यभूत ( surgical ) व्याधि है जो चिरकालीन ( chronic) होने के कारण बहुत समय तक रोगी को क्लेश देती है। यदि शस्त्रकर्म ( operation ) द्वारा उसे मार्ग मिल गया तो उसमें से मेदप्रभ स्निग्ध शुक्ल और शीतल तथा गुरु स्राव निकलने लगता है। इसे एक प्रकार की सर्वदोषयुक्त तथा सब प्रकार के शूलों वाली विधि शास्त्रकुशल बतलाते हैं। चरक ने अस्थिमज्जापाक का वर्णन वातव्याधि प्रकरण में अस्थिमज्जा में प्रकुपित वात के नाम से देते हुए निम्न लक्षण लिखे हैं:मेदोऽस्थिपर्वणां सन्धिशूलं मांसबलक्षयः । अस्वप्नः संतता रुक् च मज्जास्थिकुपितेऽनिले ।। उपरोक्त वर्णन से प्रकट है कि इस विषय का ज्ञान हमें बहुत पहले से है। पर चूंकि इतने से ही मतलब हल हो जाता था इस कारण उसका औतिकीय ऊहापोह प्राचीन काल में होता नहीं था पर अब उसके लिए सम्पूर्ण साधन उपलब्ध हैं अतः उसका वर्णन हम नीचे किए देते हैं: घोर अस्थिमज्जापाक निम्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है १. प्रत्यक्ष उपसर्ग से-जब आघातवश हड्डी भन्न होकर बाहर निकल आती है और उसमें उपसर्ग लग जाता है। २. समीपस्थ पूयिक केन्द्र से-जैसे दन्तविद्रधि से हन्वस्थि में अथवा मध्यकर्ण विद्रधि से शंखकास्थि में मजापाक होता हुआ देखा जाता है। ३. शोणितजनित उपसर्ग द्वारा यह प्रकार बालकों या किशोरों तक सीमित है। प्रौढ़ या लड़कियाँ इससे कम प्रभावित होती हुई देखी जाती हैं। उपसर्ग का कारण स्वर्णपुंजगोलाणु ( staphylococcus aureus ) नामक रोगाणु है। चमड़े में कहीं कोई व्रण या विद्रधि हुई वहाँ से उपसर्ग रक्त में पहुँचा रक्त द्वारा अस्थिपोषणी वाहिनी में गया और अस्थि के भीतर उसके प्रतानों में अस्थिशिर रेखा (epiphyseal line ) के पीछे कहीं अन्तःशल्य बन कर रुक गया और मजा का परिपाक आरम्भ हो गया । यही इसकी कथा है। यह ऊर्ध्वस्थि ( femur ) और जंघास्थि ( tibia) में अधिक होता है अन्यत्र कम । बाहु की अस्थियों में भी मिलता है। ____ अस्थिशिर रेखा के पीछे छिद्रिष्ठ उति में एक विद्रधि बन जाती है। प्रारम्भ में तीव्र अधिरक्तता देखी जाती है जिसके साथ-साथ अस्थि का विरलन और अस्थिनिकुल्या (Haversian canal) का विस्तीर्ण होना चलता है जो प्रवृद्ध अस्थिदलन क्रिया ( osteoclasis ) का द्योतक है। अस्थि के भीतर जितनी भी मृदु उतियाँ निवास करती हैं उन सब पर व्रणशोथात्मकशोफ ( inflammatory oedema) का इतना पीडन होता है कि उनकी रक्तपूर्ति में बाधा पहुँच कर उनकी मृत्यु होने For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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