SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 865
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८६ विकृतिविज्ञान भी हो सकता है कि इसमें कुछ छटांक पीतश्लेष्माभ तरल भरा हुआ हो । यह तरल प्रकार में रक्त के मिलने से लाल या बभ्रु वर्ण का भी हो सकता है। सकोष्ठ-ग्रन्ध्यर्बुद-यह ग्रन्थ्यर्बुद कोष्ठों के स्तरीय कोशाओं से बना करता है। बीजग्रन्थि तथा स्तनग्रन्थियों में यह बहुधा पाया जाता है। कोष्ठ के स्तरीयकोशा ( lining cells ) प्रगुणित होते हैं जिसके कारण अंकुरीय प्रवर्द्धनक कोष्ठ के सुषिरक में बढ़ने लगते हैं। वे यहाँ तक बढ़ सकते हैं कि सम्पूर्ण कोष्ठीय अवकाश को ही भर लें। यही सकोष्ठ ग्रन्थ्यर्बुद कहलाता है। यह अर्बुद अकेला भी हो सकता है और कभी-कभी कई-कई भी हो सकते हैं। यदि कोशा प्रगुणन अंकुरीय नहीं है तो ग्रीन को उसे अर्बुद का वास्तविक रूप करके मानने में सन्देह है। शल्काधिच्छदीय कोष्ठ कभी-कभी त्वचा के नीचे ही पाये जाते हैं। ऐसा अंगुलियों में अथवा अन्यत्र देखा जाता है। यह त्वग्लव के आधातिक वपन ( traumatic implantation of a frag. ment of skin ) का एक उदाहरण है। यह वपन निरन्तर वृद्धिंगत होने पर भी सच्चा अर्बुद नहीं हुआ करता । इसे चर्माभ वपन ( implantation dermoid) भी कहते हैं परन्तु यतः वह भ्रौणार्बुदीय चर्माभों के साथ गोलमाल कर सकता है अतः चर्माभवपन कोई सुन्दर नामकरण नहीं हो सकता। जहाँ पर ग्रीवा में जलक्लोमदरी ( branchial cleft ) बन्द होती हैं ठीक उन्हीं विन्दुओं पर अधिचर्म कोशाओं का मिश्रण देखा जाता है। इनके कारण क्लोमजनक कोष्ठ ( branchiogenic cysts ) ग्रीवा में बनते जाते हैं जो शल्काधिच्छदाच्छादित होते हैं। किसी प्रणाली के मुख के बन्द हो जाने से भी अवरुद्ध कोष्ठ ( retention cyst ) बन जाते हैं। इन कोष्ठों में तरलीय विहास ( colliquative necrosis) होती हुई भी मिल सकती है। यकृत् और वृक्कों में शरीरनिर्माण सम्बन्धी दोष के कारण अन्यत्र भी कोष्ठ बनते हैं। सकोष्ठ ग्रन्थ्यर्बुद द्वारा रक्तस्राव करने की प्रवृत्ति बहुत अधिक देखी जाती है। यही नहीं, बहुधा वे दुष्टार्बुद में परिणत हो जा सकते हैं। उस समय सकोष्ठ कर्कट उनकी संज्ञा दी जाती है। चूचुक के समीप की बड़ी-बड़ी स्तन्य प्रणालियों में प्रणालिकीय अङ्कराबुद (duct papilloma) नामक एक रोग और मिलता है। यह सतन्तु ग्रन्थ्यर्बुद का अंकुरीय प्रकार प्रतीत होता है। यह प्रजावती प्रौढाओं को ४० वर्ष की वय से ऊपर उत्पन्न होता है । ये अर्बुद सरलता से आघातग्रस्त हो जाते हैं और इनसे पर्याप्त रक्त निकल जाता है। इनके कारण इनकी आकृति स्तनकर्कट सरीखी देखी जाती है। जिस दुग्ध प्रणाली में ये बनते हैं उसे चौड़ा कर देते हैं और कभी-कभी द्रुष्ट रूप भी धारण कर लेते हैं। बीजग्रन्थियों (ovaries) में उत्पन्न होने वाले ग्रन्थ्यर्बुद भी बहुधा कोष्ठीय (cystic) हुआ करते हैं । इस वृद्धि के अधिच्छदीय कोशाओं की उत्पत्ति दो स्थलों से हो सकती है। इनमें एक स्थल बीजग्रन्थि के धरातल पर स्थित रोहि-अधिच्छद का अन्तःभाग होता For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy