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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान - २-शुक्रार्बुद ( Seminoma) यह एक प्रकार का कर्कट है । इसे ईविंग एक प्रकार का भ्रौणार्बुद (teratoma) मानता है और कहता है कि इसमें कोशा बहुत निम्न श्रेणी का होने के कारण विभिन्नन प्रकट नहीं होता। फ्रान्सीसी विद्वान् इसे रेतसनालिकाओं (seminiferous tubules) के बड़े-बड़े पूर्वशुक्रकोशाओं ( spermatoey tes ) द्वारा बना हुआ अर्बुद मानते हैं और इसलिए इसे वास्तव में वृषण कर्कट कहते हैं। दोनों ही मत ग्राह्य हैं क्योंकि इस अर्बुद के कोशाओं का विन्यास कभी-कभी नालिकीय ग्रन्थिकाओं के निर्माण की ओर निर्देश करता है और बहुत स्थानों पर ऐसा विन्यास नहीं देखा जाता। अतः दोनों मतों में से किसी एक को अभी तक मान्यता देने के पूरे प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सके हैं। औतिकीय रष्टि से यह अर्बुद गोल अविभिनित कोशाओं से बनता है जिसकी न्यष्टियाँ गहरी रंगी जा सकती हैं। इनमें कायारस अधिक नहीं होता। विभजनाङ्क पर्याप्त होते हैं। कोशाओं में अङ्गाम विन्यास न होकर वे स्तारों या स्तम्भों में होते हैं जिन्हें तान्तव संधार की स्वल्प मात्रा पृथक करती है। संधार में लसीकोशाओं और लघुजालकान्तश्छदीय महाकोशाओं की भरमार देखी जा सकती है। देखने से और कोशीय विभिन्नन की कमी से संकटार्बुद (सार्कोमा) का भ्रम हो सकता है परन्तु वास्तव में यह कर्कट है इसमें कोई सन्देह नहीं। शुक्रार्बुद सदैव बहुत दत वेग से बढ़ते हैं। यदि उन्हें उत्पन्न होते ही काट कर न फेंक दिया गया तो उनकी पुनरुत्पत्ति ही नहीं होती वे सर्वाङ्गीण (genera. lised) विस्थाय भी उत्पन्न कर सकते हैं । ऊतिनाश और रक्तास्त्राव खूब होता है। यह बड़े अर्बुदों में बहुत देखा जाता है। कर्कटकोशा अण्डधरपुटक ( tunica vaginalis ) तक भरमार करते हैं। वृद्धि के साथ उदकमुष्क ( hydrocele ) तथा शोणमुष्क ( heamatocele ) भी देखे जा सकते हैं परन्तु उनकी भी एक मर्यादा होती है क्योंकि अर्बुद वृषण से संसक्त ( अभिलग्न ) होता है। ३-शिश्न कर्कट ( Carcinoma of the Penis ) इसे अधिच्छदार्बुद ( epithelioma ) भी कहा जाता है। यह बहुत अधिक देखा जाने वाला रोग है। यह शल्कीय अधिच्छदार्बुद होता है। आरम्भ में कर्कट एक छोटी चर्मकीलसम (warty ) वृद्धि मात्र होता है। वह शनैः शनैः शिश्नमुण्ड पर गोभी के फूल की तरह कवकान्वित पिण्ड (fungating mass ) बन कर फैलता चला जाता है। यह शिश्नमुण्ड के किनारे ( corona ) पर प्रायः बनने लगता है। जो व्यक्ति निरुद्धप्रकश ( cphimosis ) से कुछ पीड़ित रहते हैं उनको ही यह विकार अधिक होता है इसी कारण परिकर्तित मेढ़चर्मियों ( circumcised ) को यह विकार नहीं मिला करता । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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