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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५२ विकृतिविज्ञान ऊपर जो हमने चित्र उपस्थित किया है वह यद्यपि वृक्छ कर्कट का स्थूल और एक सा स्वरूप प्रकट करता है तद्यपि अण्वीक्षण पर वृक्क कर्कट के दो भिन्न प्रकार देखने में आते हैं। इनमें एक प्रकार अंकुरीय (papillary) होता है । इसके चतुष्कोणाभ कोशा प्रवर्द्धनकों में देखे जाते हैं। इस कोशाओं का प्ररस कणात्मक होता है और उसमें स्नेहविन्दु होते हैं कभी-कभी वह अत्यन्त स्वच्छ कणविरहित और रसधानीयुक्त भी देखा जाता है । उस पर कोई वर्ण नहीं चढ़ता परन्तु उसमें मधुजन की मात्रा पर्याप्त होती है। वृक्क कर्कट के दूसरे प्रकार में कोशा स्तम्भों में या स्तरों में विन्यस्त रहते हैं, अंकुर नहीं बनाते। वे चतुष्कोणाम न होकर बहुभुजीय होते हैं। उनका कोशाप्ररस स्वच्छ और कणरहित होता है। इस प्रकार में बहुन्यष्टीय वा महाकोशा बहुधा देखे जाते हैं जो प्रथम प्रकार में नहीं मिलते। कहीं-कहीं वृक्क नलिकाएँ उगती हुई भी दिखाई देती हैं। वृक्क कर्कट निदर्शक लक्षण बहुत कम मिलते हैं । यह रोग प्रौढावस्था में उत्पन्न होता है । इसमें शूलरहित निरन्तर भौर प्रचुर परिमाण में रक्तमेह (haematuria) पाया जाता है। इस रक्तमेह का कारण है वृक्तकर्कटीय क्षेत्र से नलिकाओं एवं वृकमुख को रक्त का च्यावन होना। परन्तु यह लक्षण सदैव स्थायी रूप से नहीं मिलता। जब तक कर्कट छोटे रूप में रहता है तब तक रक्तस्राव नहीं होता और होने पर मूत्र के साथ उत्सर्ग होना आवश्यक नहीं। किसी-किसी में साथ-साथ ज्वर आ सकता है जो बराबर रहता है। इन दो लक्षणों के अतिरिक्त अन्य लक्षण नहीं मिलते। जब अस्थि में विस्थाय के कारण अस्थिभन्न होता है या फुफ्फुस में विस्थाय होने से रक्तठीवन होता है तब वृक्तकर्कट का कुछ आभास मिला करता है। इस रोग में वृकशूल नहीं या बहुत ही कम पाया जाता है। २-भ्रौण ग्रन्थिकर्कट ( Foetal adenocarcinoma ) __ वृक्त के जीवितक श्रौण विश्रामस्थल ( foetal rests ) कहीं-कहीं पाये जाते हैं अर्थात् वहाँ वृक्क ऊति परिपक्व न होकर अपक्व रह जाती है। इन विश्रामस्थलों से भ्रौणिक ऊति की उत्पत्ति हुआ करती है। इसमें प्रारम्भिक (primitive ) प्रावर ( capsules ) तथा नलिकाएँ ( tubules ) बनते हैं । यह ऊति अपने स्थान पर दुष्ट होती है और वृक्क की परिपक्व ऊति को नष्ट करती है। इसके द्वारा विस्थायोत्पत्ति बहुधा होती नहीं है। प्रायः भ्रौण प्रकार का वृक्क अच्छा बनता है और कोशाओं का विभन्नन उच्चश्रेणी का रहता है । ३-वृक्कमुखीय अधिच्छदार्बुद (Epithelioma of the renal pelvis) वृक्कमुख पर जो कर्कटोत्पत्ति होती है वह अन्तर्वर्ती ( transitional ) प्रकार For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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