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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४२ विकृतिविज्ञान स्पष्ट चित्र बनता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम यकृद्दाल्युदर बनता है और यकृद्दाल्युदर के साथ जो ग्रन्थक परमपुष्ट हो जाते हैं उन्हीं से आगे चलकर कर्कट तैयार होता है । कर्कटकोशाओं द्वारा यकृत् की सिरायें प्रायः आक्रान्त होती हैं इस कारण जो अनेक वृद्धियाँ बनती हैं वे अन्तःशाल्यिक होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि ये अर्बुद बहुकेन्द्रीय होते हैं और यकृत् के विभिन्न खण्डों में स्वतन्त्रतया उत्पन्न होते हैं । वीक्षण करने पर यकृत् कोशा बहुत विषम रीति से अन्तर्वयित पट्टियाँ ( interlacing strands ) जकड़े प्रकारों में भी बहुत अन्तर मिलता है । बहुन्यष्टिकोशा तथा महाकोशा खूब मिलते हैं। और बहुत विभजनात देखने में आते हैं । कहीं-कहीं अवकाशिकीय या ग्रन्थीय विन्यास देखने में आता है जो पित्तप्रणालीक कर्कट के साथ संभ्रम उत्पन्न करता है । विन्यस्त होते हैं । उनको रहती हैं। कोशाओं के भौगोलिक दृष्टि से पूर्वी द्वीपसमूह जावा, सुमात्रा, मलयदेश और चीन में बहुधा यह रोग मिलता है । अमेरिका और यूरोप में यह रोग नहीं होता फिर भी वैनकूवर में जहाँ चीनियों की बहुत बड़ी आबादी है, कनाडा में सबसे अधिक यह रोग देखने में आता है । पूर्वी देशों में यकृत् के प्राथमिक कर्कट के इतनी अधिकता से होने के कई कारण हो सकते हैं। इनमें एक परजीवी कीटाणुओं ( parasites ) की उदर में अधिकता का होना हो सकता है । जापान के सासाकी और योशीदा नामक वैज्ञानिकों ने खोज करके मक्खन की पीतिमा द्वारा मूषकों में प्राथमिक यकृत् कर्कट उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। उनका कथन है कि भोजन में यदि अजरंजक ( Azo dyes ) को बढ़ा दिया जावे तो प्राथमिक यकृत् कर्कट बन सकते हैं। इस तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि यकृत् की प्रथमजात कर्कटोत्पत्ति के लिए भोजन वा खाद्यपदार्थ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं | यकृत् के प्रथमजात कर्कट में जो रोगलक्षण देखने में आते हैं उनमें कुछ तो यद्दाल्कर्ष के कारण होते हैं तथा कुछ कर्कट के कारण होते हैं । कामला तथा जलोदर ये दो लक्षण तो सामान्यतः देखे ही जाते हैं। दस प्रतिशत रोगियों में ज्वर रहता है। ज्वर पुंजीभूत यकृदर्बुद में बहुधा मिलता ति मृत्यु हुआ करती है । कुछ में कोई लक्षण नहीं कारण शीघ्र मर जाता है । है क्योंकि उसमें बहुत अधिक मिलता और रोगी रक्तस्राव के For Private and Personal Use Only पित्तप्रणालीक कर्कट - इसे पित्तवाहिन्यर्बुद ( cholangioma ) भी कहते हैं । यह बहुत कम होता है । जितना यकृदर्बुद होता है उतना यह नहीं होता । इसके साथ यकृद्दाल्यूत्कर्ष होना आवश्यक नहीं है । इसमें यकृत् का आकार बहुत बढ़ जाता है । वह बहुत अधिक कामलान्वित हो जाता है और उसमें इतस्ततः असंख्य अर्बुद पुंज ( tumour masses ) फैले हुए पाये जाते हैं। इसमें एकपुञ्जीय प्रकार देखने में नहीं आता ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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