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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३८ विकृतिविज्ञान एक आमाशयिक व्रण क्या सदैव ही कर्कट का रूप ले सकता है ? इस प्रश्न को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से बतलाया है। किसी ने मुक्त अधिच्छदीय कोशाओं की उपस्थिति व्रण में देखकर उसके दुष्ट होने की घोषणा कर दी है। किसी ने उन्हें तान्तवऊति की संकोचावस्था या पुनर्जनन प्रक्रिया का चित्र कह कर साधारण होने का मत व्यक्त किया है । पर सत्य यह है कि न सब व्रण कर्कट बनते हैं और न सब कर्कटों का प्रारम्भ व्रणों से होता है । कुछ व्रण कर्कट में परिणत हो जाते हैं तथा कुछ बिल्कुल नहीं हुआ करते । दुष्टता की ओर अग्रेसर व्रण में निम्न बातें मिला करती हैं: १. व्रण का किनारा कर्कटाभ हुआ करता है न कि उसका आधार । २. धमन्यन्तश्छद में व्रणशोथ । ३. पेशीयस्तर का पूर्णतः विनाश तथा उसकी तान्तवऊति में परिणति और ४. उपशम के कारण श्लेष्मलकलास्थ पेशीसूत्रों की पेशीयस्तर के साथ संलग्नता । Dates का कथन है कि कर्कट का स्थान मुद्रिकाद्वार होता है जब कि व्रण उस द्वार से २-४ इञ्च हट कर बनता है । अतः व्रण सदैव कर्कट बनेगा इसमें वह सन्देह व्यक्त करता है । उसकी पुष्टि में एक प्रमाण यह भी है कि जहाँ व्रण वर्षो में बनता और वर्षों रहता है, कर्कट महीनों में बनता और बहुत ही थोड़े समय में काम तमाम कर देता है । तीसरे ग्रहणी में व्रण जितना अधिक पाया जाता है कर्कट उतना ही कम । सारांश यह दिया गया है कि जीर्ण आमाशयिक व्रणों का केवल ५ प्रतिशत रूपान्तर कर्कट में होता है तथा लगभग २० प्रतिशत कर्कट अपना जन्म व्रणों द्वारा किया करते हैं । आमाशयिक कर्कट की उत्पत्ति के लिए व्रण चाहे उतना आवश्यक न हो पर आमाशय में व्रणशोथ का होना परमावश्यक है । व्रणशोथ ( gastritis ) के कारण श्लेष्मकला के कोशा अम्लोत्पत्ति में असमर्थ हो जाते हैं। वे या तो अपुष्ट हो जाते हैं या परमपुष्ट और वे अन्त्र की श्लेष्मलकला के कोशाओं के सदृश हो जाते हैं । इस प्रकार से जब श्लेष्मलकला अपना स्वाभाविक रूप छोड़ देती है तभी वहाँ कर्कटोत्पत्ति होती है। - ग्रहणी कर्कट ( Duodenal Cancer ) यह बहुत कम पाया जाने वाला कर्कट होते हुए भी जितनी कि इसके होने की आशा है उससे कहीं अधिक ही मिलता है परन्तु आमाशय की अपेक्षा यह बहुत ही कम देखने में आता है । क्षुद्रान्त्र में कर्कट के लिए यदि कोई स्थान है भी तो वह ग्रहणी प्रदेश ( duodenum ) ही हो सकता है । ग्रहणीवण ग्रहणी के प्रथम भाग में मिलता है परन्तु कर्कट द्वितीय भाग में बनता है जहाँ सामान्य पित्त प्रणाली तथा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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