SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 808
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३२ विकृतिविज्ञान क्षण पेशीयगति होती रहती है तथा तीसरा यह कि कर्कट उच्चश्रेणी (high grade ) का होता है । लस के द्वारा विविध समीपस्थ लसग्रन्थियों तक इसका प्रसार हो जाता है । रक्त के द्वारा इसका प्रसार बहुत कम देखा जाता है । दूषकता और रक्तस्राव के कारण रसनाकर्कट से ग्रस्त प्राणी जल्दी मर जाता है । निःश्वासीय श्वसनक ( inhalation pneumonia ) के कारण या अनुजिह्निका धमनी (lingual artry) के अपरदित होने से और रक्तस्त्राव होने से मृत्यु होती है । ५ - प्रसनी कर्कट ( Cancer of the Pharynx ) ग्रसनी में अधिचर्माभ कर्कट, अनुवर्ती कोशीय कर्कट तथा लस अधिच्छदार्बुद मिल सकते हैं । अधिवर्माभ कर्कट का स्थान ग्रसनीप्राचीर, तुण्डिकाप्रन्थियाँ और मृदुतालु हुआ करता है । जहाँ यह बनता है वहाँ पहले पहले कुछ काठिन्य होता है फिर शीघ्र ही वहाँ व्रण बन जाता है जिससे गहराई में स्थित ऊतियों का विनाश होने लगता है और मुख दुर्गन्ध से भर जाता है। इस कर्कट के कारण यकृत् में विस्थाय हो सकते हैं। हनु कोणों में स्थित लसग्रन्थक प्रभावित हो सकते हैं तथा अनुमन्यासिरा ( jugular vein ) तक आक्रान्त हो सकती है । ( विलिस ) ग्रसनी के निचले भाग (hypopharynx) में कृकाटिका के पीछे (postericoid) केवल स्त्रियों में कर्कट होता हुआ देखा जाता है । जब यह होता है तो निगलन कृच्छ्रता, ग्रसनीय श्लेष्मलकला का अपोषक्षय तथा उपवर्णिक लोहाभावी रक्तक्षय के लक्षण देखे जाते हैं इन्हें प्लूमर विन्सन सहलक्षण ( PlummerVinson syndrome ) कहते हैं । लोहे की कमी से श्लेष्मलकला की अपुष्टि पहले होती हैं वह पूर्वकर्कटावस्था तैयार करती है यदि इस काल में पर्याप्त लोहभस्म का प्रयोग कराये जावे तो सम्भव है इस घोर व्याधि के होने की नौबत ही न आवे । अनुवर्तीकोशीय कर्कट तथा लसअधिच्छदार्बुद दोनों एक ही वस्तु के दो स्वरूप मालूम होते हैं । यदि दोनों पृथक्-पृथक् भी हुए तो भी उनके स्थूल लक्षण और विस्थाय एक से ही होते हैं जिनके कारण उन्हें एक साथ ही लिखा जा रहा है । दोनों प्रकार का कर्कट ग्रसनी की श्लेष्मलकला के उस अधिच्छद से बनता है लाभ ऊति के ऊपर होता है । नासाग्रसनी, मुखग्रसनी और स्वरग्रसनी इसकी उत्पत्ति के मुख्य स्थान हैं । इस कर्कट की मुख्यता यह है कि जब मूल ग्रसनीय कर्कट स्वयं बहुत तुद्र होता है तब तक उसके विस्थाय जो दोनों ओर के मैविक लसग्रन्थकों में बनते हैं वे बहुत बड़े-बड़े होते हैं। यह कर्कट केन्द्राभिग ( centripetal ) न होकर केन्द्रापग ( centrifugal ) होती है । इस कर्कट के कारण करोटिमूल ( base of the skull ) तक प्रभावित होता है । पाँचवीं और छठी शीर्षण्या नाडियाँ इसके For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy