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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ यदि यह अवरोध स्थायी स्वरूप का हुआ तो पेशी प्राचीरों की अतिपुष्टि ( hyper trophy ) संकीर्ण भाग के ऊपर मिला करती है। लस्य कलाओं का व्रणशोथ नैदानिकीय दृष्टि से तीन प्रकार के मिलते हैं१-विशुष्क या अभिघट्य व्रणशोथ (dry or plastic inflammation)। २-लस्य-उत्स्यन्द या लस्यतन्त्विमय उत्स्यन्दकर व्रणशोथ ( serous or sero-fibrinous effusion )। ३-सपूय ( purulent) व्रणशोथ । १. विशुष्क या अभिघटय व्रणशोथ-लसी कला पर व्रणशोथ का पहला प्रकार प्रायशः शुष्क होता है। सबसे पहले किसी प्रक्षोभक अभिकर्ता के कारण लसी कला पर किसी एक स्थान पर अड्डा जमता है जिसके कारण वहाँ अधिरक्तता हो जाती है उसके पश्चात् अन्तश्छदीय धरातल पर जो स्वाभाविक चमक होती है वह नष्ट हो जाती है । अन्तश्छद के कोशा सूज जाते तथा कणात्मक हो जाते हैं उनका जल्दी-जल्दी गुणन होने लगता है कुछ कोशा जो प्रक्षोभक पदार्थ के कारण चोट खा जाते हैं वे विशल्कित हो जाते हैं। अधः अन्तश्छद के भाग में रक्तवाहिनियों से निकल-निकल कर बहुत से सितकोशा पहुँच जाते हैं जो उसका अन्तराभरण कर लेते हैं। कुछ सितकोशा तो धरातल तक पहुँच जाते हैं जिनके साथ-साथ तन्स्वि का स्राव भी हो जाता है इन दोनों के कारण श्वेत या आपीतश्वेत वर्ण का एक स्तर लसीकला वे धरातल पर बन जाता है। यह स्तर चुटैल अन्तश्छद के साथ अभिलग्न (adherent ) होता है। तन्स्वि का यह रोप उन्हीं स्थानों पर होता है जहाँ पीडन अत्यल्प होता है। ___ लसीकला के जो तल चमकरहित और खुरदरे हो जाते हैं वहीं पर तन्त्विमय अभिलाग ( fibrinous adhesion ) हुआ करता है । जब व्रणशोथ शान्त हो जाता है तो बहुत सी तन्त्वि को प्रोभूजांशन क्रिया तथा भक्षक्रिया द्वारा चट कर दिया जाता है पर कुछ रह कर तान्तव ऊति का निर्माण करती है। तान्तव ऊति के कारण अभिलग्न तल सदैव के लिए संयुक्त हो जाते हैं। जिन स्थानों पर दो लसी कलाओं के मध्य गति होती रहती है वहां पर नवनिर्मित तान्तव सम्बन्ध खिंच- खिंच कर धागों के आकार के हो जाते हैं जिनकी मोटाई कहीं अधिक और कहीं कम देखी जाती है। उदर में इन्हीं तान्तव अभिलग्नता के कारण आन्त्र का यन्त्रवत् अवरोध ( mechanical obstruction ) होता हुआ देखा जाता है। २. लस्य व्रणशोथ-अन्तश्छद की अधिरक्तता तथा धरातल की रूक्षता तो उतनी ही होती है जितनी विशुष्क व्रणशोथ में पर इसमें तरल का उत्स्यन्दन ( effusion ) बहुत अधिक होता है। इसी से अधिकांश में अन्तश्छद पर शायद लसीका (lymph) आकर आतंचित होता हो इसी कारण उत्स्यन्द तरल बहुत स्वच्छ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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