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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ ६५७ और विशेष कणन ऊति का निर्माण होने लगता है । सर्वप्रथम वृद्धि ग्रैविक ग्रन्थियों में होती है । फिर पश्चग्रसनी, आन्त्रनिबन्धनीक और वंक्षणग्रन्थियाँ प्रभावित होती हैं । प्रारम्भ में प्रभावित ग्रन्थियाँ मृदु होती हैं पर वे शनैः शनैः बढ़ती और प्रगाढ़ एवं कड़ी होती जाती हैं । वे कितने ही बड़े आकार की हो जावें आपस में मिलती कदापि नहीं है । न उनमें किलाटीयन होता है और न पूयन ही । कभी-कभी उनमें ऊतिमृत्यु ( necrosis ) हो जा सकती है । ग्रैव ग्रन्थियों की वृद्धि पहले देखी जाती है इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हीं की पहले वृद्धि होती है । गहरी ग्रन्थियाँ पहले प्रवृद्ध होती हैं उपरिष्ट ( superficial ) बाद में । इसी प्रकार प्लीहा में प्लीहाणु ( malpighian bodies of the spleen ) भी प्रवृद्ध होने लगते हैं । इसके कारण ७५ प्रतिशत रोगियों में प्लीहोदर अवश्य पाया जाता है । उसी प्रकार अस्थिमज्जा में रक्तकोशारुहीय ( erythroblastic ) तथा सितकोशाघटकीय प्रतिक्रियाएँ देखी जाती हैं जिनमें गाँठदार आकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । रक्त में उपसिप्रिकोशा बढ़ जाते हैं सितकोशाओं में परिवर्तन लगातार और एक से नहीं मिलते। रक्तचक्रिकाएँ ( रक्तबिम्बाणु ) भी बढ़ते हैं तथा रक्त के अन्दर (megacaryeytes ) भी देखे जाते हैं। रोगी को ज्वर का अनुबन्ध रहा करता है । औतकीय दृष्टि से इस रोग में लघु और बृहत् दोनों प्रकार के गोलकोशा (लसीकोशा ) बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं । अधिच्छदाभ कोशाओं का प्रगुणन डटकर होता है साथ में उनमें प्ररस ( protoplam ) तथा जालक कोशाओं की प्रचुरता भी पाई जाती है । उषसिप्रिय कोशा, तन्तुघट या तन्तुरुह तथा महाकोशा पर्याप्त मिलते हैं । महाकोशाओं में एक या दो न्यष्टियाँ मिलती हैं अधिक नहीं । इन्हें स्टर्नबर्ग महाकोशा ( sternberg giant cells ) कहते हैं । ये कोशा बड़े होते हैं तथा परमन्यष्टिरुर्हो (magaloblasts) जैसे लगते हैं । वे समीप के कोशाओं से प्रायः प्ररसीय प्रवर्धी द्वारा बँधे हुए से देखे जाते हैं । प्ररसकोशा भी खूब मिलते हैं । तस्कर्ष तथा कार परिवर्तन भी प्रायः देखे जाते हैं । अण्वीक्षणिक परिवर्तन प्लीहा तथा अन्य अंगों में वही होते हैं जो लसग्रन्थियों में होते हैं । बाह्य द्रव्य कणार्बुद यदि त्वचा में लाइकोपोडियम के बीजाणु अन्तःक्षिप्त कर दिये जावें तो शरीर के प्रोतिकोशा वहाँ आते हैं और इन बीजाणुओं को बाहर निकालने का यत्न करते हैं । इन प्रोतिकोशाओं में महाभक्षि ( macrophage ) इन बीजाणुओं को अपने उदरस्थ कर लेते हैं और फिर अन्य महाभक्षियों से मिलकर महाकोशाओं में परिणत हो जाते हैं। जितने बीजाणु बड़े होंगे उतने ही बड़े महाकोशा बनेंगे । इन महाकोशाओं में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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