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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ सूक्ष्मकवकजन्य रोग सूक्ष्म कवक को मोल्ड ( mould ) कहा जाता है । इन मोल्डों में से अनेक विकारकारी ( pathogenic ) होते हैं । इनकी यह सामर्थ्य नहीं होती कि शरीर की सजीव ऊतियों को हानि पहुँचावें । इनका गमन अधिचर्म ( epidermis ) तक होता है और वे अनेक प्रकार के वोगों को उत्पन्न करने में समर्थ हो सकते हैं । ६५३ इन सूक्ष्म कवकों में एक मानव आदारुणक ( achorion schoenleinii ) है | जिसके कारण आदारुण ( favus ) नामक रोग होता है । यह रोग केशपूर्ण ( hairy ) भागों पर होता है । मानव आदारुणक नामक सूचमकवक हलके पीतवर्ण का होता है । यह बालों की जड़ में अपना अड्डा जमाता है । केशकूपिका ( hair follicle ) के अधिच्छद पर इसका अधिकार रहता है । कहीं कहीं यह अधिच्छद तक चला जाता है तथा और भी आगे चर्म ( corium ) तक पहुँच जाता है । चर्म तक जाने पर स्थानिक प्रक्षोभ और खुजली बहुत होती है । यह सूक्ष्म कवक सन्धिरहित इतस्ततः अक्रम से फैली शाखाओं वाला होता है इसकी नलिकाएँ एक दूसरे को पार करती हैं। किसी किसी में सन्धियों के स्थान होते हैं और वहाँ अण्डाकार बीजाणु बन जाते हैं । दूसरा सूक्ष्म कवक के कवक ( trichophyton ) वर्ण का होता है उसकी कई जातियाँ होती हैं जैसे महाबीजाणु केशकवक ( trichophyton megalo sporon ), अन्तर्बहिर्महाबीजाणु केशकवक ( T. megalosporon endoectothrix ), शिरस्त्वक् केशकवक ( T. tonsurans ) | ये दद्रु ( ringworm ) उत्पन्न करते हैं । ददु भी कई प्रकार का होता है । जब केश पर प्रभाव पड़ता है तो केश की मूल और केशदण्ड का अधोभाग इन कवकों के बीजाणुओं द्वारा खा लिया जाता है । ये कवक विनष्ट हुए केशों की तन्तुकाओं के बीच में पंक्तिबद्ध देखे जाते हैं । केश पारान्ध तथा भिदुर हो जाते हैं । थोड़े समय पश्चात् के टूट जाते हैं । जो विक्षत बनता है उसकी अधिच्छद की पपडी में अनेक सूक्ष्म कवक भरे रहते हैं। अधिक गहराई में केशमूल कंचुक इन जन्तुओं के प्रभाव से रहित होते हैं। बीजाणु खूब मिलते हैं वे अण्डाकार भी होते हैं, कवकीय सूत्र ( mycelial threads ) बहुत कम होते हैं । इन कवकजनित ददुओं के सम्बन्ध में ग्रीन ने निम्न पद ( points ) बतलाये हैं : १. ये प्रायः बालकों तक सीमित रहते हैं । २. ये दुर्बलों पर प्रहार करने की प्रवृत्ति रखते हैं । ३. तीव्रावस्था में संक्रमणशीलता अत्यधिक रहती है जो ज्यों ज्यों रोग जीर्ण होता जाता है कम होती चली जाती है । For Private and Personal Use Only ४. यदि रोग किसी पशु द्वारा उपसृष्ट हुआ हो तो वह अधिक उम्र होता है । यह अत्यधिक खुजली, प्रक्षोभ तथा पूयन भी कर सकता है ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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