SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 720
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ ( १ ) किरण कवकरोग ( actinomycosis ) ( २ ) मदुरापाद या कवकार्बुद ( madura foot or mycetoma ) ( ३ ) मुखपाक ( thrush ) ( ४ ) युग् कवक रोग ( blastomycosis ) ( ५ ) बदराणु रोग ( coccidiosis ) (६) सूक्ष्म कवकजन्य रोग ( moulds ) ६४७ अब हम इनमें से प्रत्येक का थोड़ा-थोड़ा वर्णन करेंगे। ये सभी कणनीयार्बुदीय ( granulomatous ) होने के कारण ही उन्हें यक्ष्मा, फिरंग तथा कुष्ट की गणना में ही लिया जाता है । ये रोग बहुधा पशुओं के द्वारा मनुष्य के पास आते हैं परन्तु कैसे आते हैं इसके सम्बन्ध में अभी कोई निर्णय नहीं हो सका है। किरणकवक रोग यह रोग पशुओं, घोड़ों तथा शूकरों में बहुधा होता है और उन्हीं के प्रचुर सहवास के परिणामस्वरूप इसे मनुष्य प्राप्त करता होगा ऐसा अनुमान है । यह गव्य किरणकवक ( actinomycosis bovis ) द्वारा फैलता है। इसका नाम रश्मिकवक या किरणकवक इसलिए पड़ गया है कि इसके मण्डल ( colonies ) में कवकसूत्र उसी प्रकार विन्यस्त रहते हैं जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य के चारों ओर अनुक्रमित रहती हैं अथवा जैसे पहिये के अरे चारों ओर को ठीक गोलाई में अनुक्रमित रहते हैं । यह कवक एक प्रकार का मालावेत्राणु ( streptothrix ) है । यह शरीर ऊतियों में एक स्वल्प पीत पुञ्जक ( clump ) बना लेता है। इन पुंजकों को गन्धक (sulphur granules ) कहते हैं । ये पुंजक सूत्रों सहित बीजाणुओं के नमित पुंज तथा मुद्गराकृतिक कार्यों के द्वारा बनते हैं मुद्गराकृतिक काया सदैव परिणाह पर रहती है ( these clumps are made of felted mass of filaments with spores and club-shaped bodies at the periphery ) इनके सूत्र सुषवाधान्य (gram positive ) होते हैं तथा मुद्गराकृतिकाय सुषवधाव्य ( gram negative ) होते हैं । किरण कवकों के भी कई प्रकार होते हैं जिनमें एक प्रकार जारक जीवों ( aerobs ) का है और दूसरा अजारक जीवों ( anaerobes ) । मनुष्य वा पशुओं को जो उपसर्ग करते हैं वे प्रायः अजारक जीवी हुआ का है करते हैं । For Private and Personal Use Only यह रोग सम्पूर्ण कवक रोगों में भयकारी माना जाता है। इसके कारण कणनीयार्बुदीय पुंज या विद्रधियाँ बनती हैं जो विक्षत बनते हैं उनमें कवकगन्धक के कणों के रूप में होता है । इन कणों में से प्रत्येक के केन्द्र भाग में सूत्रों की शाखा - प्रशाखाएँ रहती हैं जिनके चारों ओर रश्मिवत् विन्यस्त मुद्गराकृतिक शोथ होता है जो सूत्रों के एक किनारे या परिणाह पर रहता है ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy