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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४४ विकृतिविज्ञान आता है वह अधिक प्रभावित होता है तथा जो पेशियों की ओर जाता है वह उतना प्रभावित नहीं होता है। नाडीपूलों ( nerve bundles ) के बीच बीच में कुष्ठजीवाणु प्रवेश कर जाते हैं उसके पश्चात् वहाँ कणन अति बनती है जो अन्त में तान्तव ऊति में परिणत हो जाती है। वातनाडियों में सर्वप्रथम प्रक्षोभ होता है इस कारण सबसे पहले संज्ञाविकृति के चिह्न , शूल, सुन्नता तथा ओष (दाह) उत्पन्न हो जाते हैं। साथ में कर्मविकृति के चिह्न पेशीस्फुरण तथा पेश्याक्षेप उन पेशियों में जिनमें वे वातनाडियाँ आती हैं देखे जाते हैं। प्रभावित या रुग्ण हुई वातनाडी त्वचा के जिस भाग तक पूर्ति करती है वहाँ के लोमों या केशों का पतन हो जाता है तथा वहाँ केशपात के पूर्व उद्वर्णिक ( macu. lar ) उद्भेदन ( eruption ) हो जाता है । केशपात के पश्चात् त्वचा निश्चेत (anaesthetic ) होने लगती है। उद्वर्णिक उभेद और निश्चेतता के कारण कुष्ठ के इस रूप को उद्वर्ण-निश्चेत रूप ( maculo anaesthetic form ) भी कह कर पुकारते हैं। पहले त्वचा में शूल और अतिसंज्ञता ( hyperaesthesia ) पाई जाती है है फिर त्वचा तनु और विसंज्ञ ( insensitive ) हो जाती है। नाडियों के द्वारा पूर्त पेशियां कृश हो जाती हैं। प्रभावित नाडीक्षेत्र में स्फोटोत्पत्ति इस रोग का प्रथम लक्षण बतलाया जाता है। इन स्फोटों को कुष्ठस्फोट ( pemphigus leprosus ) कहते हैं। ये स्फोट या तो सूख जाते हैं और उनके स्थान पर पाण्डुर विसंज्ञ क्षेत्र रह जाते हैं जिनके किनारे रंगे हुए होते हैं या वहाँ व्रण बन जाते हैं। विसंज्ञ नाडी क्षेत्रों में व्रणों का बनना एक अवश्यम्भावी घटना है। ये व्रण इतने गहरे भी होते हैं कि रोगी की अंगुलियाँ गल जाती हैं और उसके हाथ पैर विकृत हो जाते हैं और अंगनाश ( lepra mutilans ) हो जाता है। डाक्टर धीरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक तीसरे कुष्ट के रूप को भी मान्यता दी है जिसे वे मिश्रित रूप ( mixed form) कहते हैं। मिश्रित प्रकार के कुष्ठ में निश्चेतरूपी कुष्ठ होने के पश्चात् उसी में ग्रन्थिकीय कुष्ठ की ग्रन्थिका बन जाती हैं जो आगे चलकर व्रणीभूत हो जाती हैं। कुष्ठ के इन दोनों रूपों में प्रभावित क्षेत्रों से लस प्राप्त करने वाली लसिकाग्रन्थियाँ फूल जाती हैं। इनमें उपरिष्ठ लसीकाग्रन्थियाँ प्रथम फूलती हैं फिर गम्भीर लसीकाग्रन्थियाँ फूलती हैं। कुष्ठ का प्रभाव भीतरी अंगों पर भी पड़ता है इनमें यकृत् , प्लीहा तथा वृषण प्रन्थियाँ मुख्य हैं । ये भी फूल जाती हैं। निश्चेतरूपी कुष्ठ बहुधा उष्ण प्रदेशों में होता है। इससे पीडित व्यक्ति जितने दिन जीता है उसके आधे ही कालपर्यन्त प्रन्थिकीय कुष्ठ से पीडित रोगी जीता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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