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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ६३७ सामान्य तापांश पाया जाता है। यह उष्ण कटिबन्ध में होने वाला एक रोग है । इसका कर्ता जीवाणु श्वेतद्वीप विकुन्तलाणु ( borrelia recurrentis or spirillum obermeieri ) कहलाता है । इसे १८७३ ई. में ओबरमियर ने खोजा था। रोग का आरम्भ वमन के साथ तीव्र ज्वर के साथ होता है प्लीहा की पर्याप्त वृद्धि हो जाती है। ४-५ दिन ज्वर आकर अकस्मात् तापांश गिर जाता है । एक सप्ताह तक तापांश स्वाभाविक रह कर पुनः ज्वर का आक्रमण होता है । आक्रमण के पूर्व विकुन्तलाणु रक्त में देखे जाते हैं। मैचिनीकाफ का मत है कि स्वाभाविक तापांश के काल में विकन्तलाणु प्लीहा में रहते हैं जहाँ जालकान्तश्छदीय संस्थान के कोशा उनका भक्षण करने का यत्न करते हैं। सौडाकेविच ने यह स्पष्ट किया है कि यदि प्लीहा को पहले निकाल दिया जावे तो इस रोग के कारण मृत्यु होना सरल हो जाता है। कुछ भी प्रत्यावर्त जब तक नहीं होता तब तक विकुन्तलाणु कहाँ रहते हैं नहीं कहा जा सकता । न रोगी का रक्त ही औपसर्गिक विश्रान्तिकाल में रहता है। आक्रमण के साथ विकुन्तलाणु रक्त में आते हैं। एक बात यह आवश्यक है कि प्लीहगोर्द ( splenic pulp ) द्वारा विश्रान्तिकाल में भी रोग का उपसर्ग किया जा सकता है। इस रोग के उपसर्ग का मार्ग किलनी यूका या चीलर के द्वारा है । ये जहाँ काटते हैं उस दंश क्षत में होकर जीवाणु रक्त में चले जाते हैं। ___ज्वरावस्था में एकन्यष्टिकोशाओं की वृद्धि होती है। प्लीहा की वृद्धि के साथ साथ उसमें अनेक ऋणास्त्र भी पाये जा सकते हैं। यकृवृद्धि भी देखी जाती है। हृदय और वृक्कों में मेघसम शोथ तथा स्नैहिक विहास मिलता है। नलकास्थियों में मजा का वर्ण लाल हो जाता है। गलशोफ इस रोग का कर्ता गलशोथ कुन्तलाणु (spirochaeta Vincenti) कहलाता है । इसके साथ साथ तर्कुरूपदण्डाणु ( bacillu s fusiformis) भी सदैव देखा जाता है। यह नहीं कहा जा सकता कि ये दो जीवाणु एक ही जीवाणु की दो अवस्थाविशेष हैं या दोनों एक साथ रहने वाले दो प्राणीविशेष हैं।। ___ गलशोफ एक व्रणात्मक रोग है जिसमें गले में एक कूटकला ( false membrane ) बनती है । उपसर्ग एक दन्तमांसपाक के रूप में प्रारम्भ करता है क्योंकि ये जीवाणु पूतिजीवी ( saprophyte ) के रूप में दांत के चारों ओर देखे जाते हैं। मसूड़े सूज जाते हैं उनसे रक्त निकलने लगता है। तीव्र विषरक्तता, ग्लानि और शिरःशूल रोगी अनुभव करता है यद्यपि उसे ज्वर नहीं हो पाता। मसूड़ों से शोफ गले और तुण्डिका ग्रन्थियों की ओर जाता है। कभी कभी पहले रोग गले में लगता है फिर वह मसूड़ों की ओर जाता है। दोनों दशाओं में व्रणात्मक विक्षत मुख में बनते चले जाते हैं। तुण्डिकाओं पर मलिन श्वेतवर्ण की एक कूटकला छा जाती है जिसे देखकर रोहिणी की कला का सन्देह होने लगता है । परन्तु इस कला की परीक्षा से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यह स्मरणीय है कि जिन जीवाणुओं के कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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