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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ६२७ समझने की बात है। बहिर्जनित तन्तु पश्चमूलप्रगण्ड के नाडीकोशाओं से निकलते हैं । इसके कारण प्रत्येक खण्ड पर नवीन तन्तु सुषुम्ना में प्रविष्ट होते जाते हैं । ये तन्तु ३ समूहों में विभाजित किए जा सकते हैं जो ह्रस्व, मध्य तथा दीर्घ कहलाते हैं। हस्व तन्तु सीधे सुषुम्ना के धूसर पदार्थ में घुस जाते हैं और अग्र तथा पश्च शृंगों के कोशाओं के चारों ओर समाप्त हो जाते हैं। इन तन्तुओं का सम्बन्ध गम्भीर प्रतिक्षेपों तथा पेशीतान के साथ होता है। इस कारण जब वे तन्तु नष्ट हो जाते हैं तो न गम्भीर प्रतिक्षेपों का कार्य चलता है और न पेशीतान ( muscle tone ) ही रहती है। इन्हीं ह्रस्व तन्तुओं द्वारा शूल का भाव भी ले जाया जाता है। मध्यम तन्तु ऊपर की ओर जाते हैं और वे क्लार्कस्तम्भ के कोशाओं के चारों ओर समाप्त हो जाते हैं । वहाँ से उनसे ऋजु निमस्तिष्कीय पथ ( direct cerebellar tract ) बनते हैं । इन तन्तुओं में बाधा पड़ने से निमस्तिष्कीय या धम्मिलकीय लक्षण प्रगट हो जाते हैं। दीर्घ तन्तु सुषुम्नाशीर्षस्थ कोणकन्दिका ( nucleus cuneatus) तथा दशाकन्दिका (nucleus Gracilis ) में समाप्त होते हैं इन कन्दिकाओं से संवेदनात्मक तरंगे आज्ञाकन्द ( thalamus ) तथा धम्मिलक को जाती हैं। जो भी पश्चस्तम्भ में नये तन्तु आते हैं वे बाहर की ओर रहते हैं और पहले के तन्तु जो नीचे के अंगों से आते हैं भीतर मध्यरेखा की ओर खिसक जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि गौल का स्तम्भ ( column of Goll ) जो भीतर की ओर रहता है उसमें कटि और त्रिक प्रदेश के तन्तु रहते हैं तथा बर्डक के स्तम्भ ( column of Burdach ) में जो बाहर की ओर होता है उसमें पृष्ठ और ग्रीवा मात्र के तन्तु रहते हैं। __ प्रचलनासंगति जो रोग है वह वास्तव में कटिप्रदेशीय सुषुम्ना का रोग है। इस स्थान पर उच्छेद करने से सम्पूर्ण बहिर्जनित तन्तु पश्चस्तम्भ के कट जाते हैं या विहासित हो जाते । इस विहास के कारण सम्पूर्ण अभिवाही तन्तुओं का नाश हो जाता है । ग्रीवाप्रदेश में विहास को प्राप्त दीर्घ तन्तु भीतर की ओर विच्युत होकर गौल का स्तम्भ बनाते हैं और यदि पृष्ठ और ग्रीवा के आगत तन्तु रोग ग्रसित नहीं हैं तो बर्डक स्तम्भ प्रकृतावस्था में ही रहता है। यदि सम्पूर्ण आगत तन्तु प्रभावित हुए तो ग्रीवा क्षेत्र के दोनों स्तम्भ जरठित ( sclerosed ) हो जाते हैं। कभी कभी जब ग्रैविक पश्चकार्य ही होता है तो गौलस्तम्भ प्रकृतावस्था में रहता है और बाह्य बर्डक स्तम्भ विनष्ट हो जाता है। इस रोग का एक मुख्य विक्षत है नाडीतन्तुओं के अक्षरम्भ तथा विमजिकंचुक का लोप, पर लोप को साधारण अभिरंजन के द्वारा प्रकट करना बहुत कठिन है इसके लिए वीगर्ट विधि जो विमजि के लिए प्रयुक्त होती है अपनानी पड़ती है । इस विधि से प्रकृत विमजिकंचुक काला रंग देती है और विनष्ट सूत्रों को ज्यों का त्यों छोड़ देती है। तन्तुओं के नाश के साथ-साथ नाडीश्लेष ( neuroglia ) में भी प्रगुणन होता है जो एक उत्तरजात लक्षण है। वाहिनी प्राचीरें भी स्थूल हो जाती हैं । सब परिवर्तन For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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