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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shrik ६२६ विकृतिविज्ञान निश्चित है कि यह रोग फिरंगजनित होता है परन्तु इसमें जो विक्षत मिलते हैं वे फिरंग के अन्य विक्षतों से सादृश्य बिल्कुल नहीं रखते । यद्यपि कई विद्वानों ने सुषुम्ना से सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति सिद्ध कर दी है फिर भी उनको इस रोग में पाना बहुत कठिन और गुरुतर कार्य है। यह रोग स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक देखा जाता है । यह प्रायः प्रौढावस्था में ४० वर्ष के पश्चात् देखा जाता है । प्रचलनासंगति नामक रोग के विक्षत दो स्पष्ट प्रकार के होते हैं । सर्वप्रथम तानिकाओं का फिरंगिक व्रणशोथ होता है। व्रणशोथ या पाक यह आवश्यक नहीं कि बहुत गम्भीर स्वरूप का हो । अवश्य ही वह सौम्य प्रकार का भी हो सकता है और इतना सौम्य कि उसके होने में भी सन्देह होने लगे। इस पाक की तीव्रता ( intensity ) का आगे रोग के द्वारा होने वाली विकृतियों से बड़ा भारी सम्बन्ध होता है। तानिकीय पाक नामक प्रथम विक्षत से अधिक महत्त्व का और विशिष्ट (characteristic) लक्षण होता है सुषुम्ना के पश्चस्तम्भों का विहास और विलोप (degeneration and disappearance of posterior columns of the spinal cord ) तथा उसके स्थान पर व्रणवस्तु का निर्माण । सुषुम्ना के ये विक्षत प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। प्रभावित स्तम्भों के ऊपर मृदुतानिकीय स्थूलन हो जाता है और मृदुतानिका सुषुम्ना से अभिलग्न हो जाती है इस प्रकार एक पारान्धसम दीखने वाली तंग पट्टी सुषुम्ना की सम्पूर्ण लम्बाई पर पश्चभाग में चिपकी हुई दिखलाई देती है। पश्चस्तम्भों का तल उदुब्ज ( convex ) नहीं रह पाता और या तो वह चिपिटित हो जाता है या न्युब्ज ( concave )। जब उसे अनुप्रस्थ दिशा में काटा जाता है तो शेष श्वेत पदार्थ से नितान्त भिन्न पारभासक तथा धूसर वर्णीय पदार्थ देखने में आता है । पश्चस्तम्भों की इस अपुष्टि के कारण ही इस रोग का नामकरण पश्चकार्य किया गया है ऐसा ज्ञात होता है। पश्चवातनाडीमूलों में भी यही परिवर्तन मिलते हैं वे छोटे हो जाते हैं सिकुड जाते हैं धूसर होते हैं और उनकी तुलना में अग्रनाडीमी खूब मोटे होते हैं। अण्वीक्षण पर यह परिवर्तन देखा जाता है कि अधो अभिवाही नाडीकन्दाणु ( lower afferent neurone ) अर्थात् जिन्हें सुषुम्ना के पश्चस्तम्भों के बहिर्जनित तन्तु कहते हैं विहासित और विलुप्त हो जाते हैं। पश्चस्तम्भों के सम्बन्ध में कुछ शब्द कहना यहाँ आवश्यक है । पश्चस्तम्भ अन्तर्जनित और बहिर्जनित इन दो प्रकार के तन्तुओं के द्वारा निर्मित होते हैं। अन्तर्जनित तन्तु सुषुम्ना के अन्दर के कोशाओं से उत्पन्न होते हैं वे ऊपर या नीचे २ या ३ खण्डों तक जाते हैं बाद में अन्य कोशाओं के चारों ओर समाप्त हो जाते हैं इस प्रकार वे समीपस्थ खण्डों (segments) को सम्बन्धित करते हैं। ये तन्तुयोजनिका ( commissure ) के पीछे अग्रपार्वीय ( antero lateral part) में एकत्र होते हैं। जब ये तन्तु नष्ट होते हैं तो उससे प्रचलनासंगति नामक रोग की मुख्य विकृति का कोई भी अंश नहीं बनता यह For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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