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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ६१६ फिरंगियों में एकाध में मिलती है । कभी कभी कोई फिरंगार्बुद बन जाता है जो अन्त निलयीयपटी ( interventricular septums ) पर बनता है। यह हृदय के वामनिलय के अग्रप्राचीर पर भी बन सकता है। पटी पर इसके स्थित होने के कारण हृत्तरंग संचालन कार्य में बाधा पड़ सकती है जिसके कारण हृद्दति में बाधा ( heart block ) आ सकती है या मूर्छा ( syncope ) बन सकती है या मृगी के दौरे (epileptiform convulsions ) देखे जा सकते हैं क्योंकि मस्तिष्क को पर्याप्त मात्रा में रक्त का पहुँचना रुक जाता है । इन लक्षणों को स्टोक्स आदम्स सहलक्षण ( stokes-adams syndrome ) कहते हैं। (१७) फिरंगिक वृक्कपाक वृक्कपाक बहुत ही कम अवस्थाओं में फिरंग के कारण होता है । फिरंग की बाह्यावस्था का वृक्कों पर परिणाम नहीं होता जो कुछ परिणाम होता है वह आभ्यान्तरावस्था या बहिरन्तर्भवास्था में देखा जाता है। आभ्यन्तर फिरंगावस्था के कारण तीव्र वृक्कपाक बनता है जो प्रायः दूसरे मास में प्रकट होता है । यह विस्फोट स्वरूप का होता है और जब त्वचा और श्लेष्मलकला में विस्फोट होते हैं उसी समय वृक्क में भी रोग लगता है। नैदानिक चित्र वृक्कोत्कर्ष या वृक्करुजा ( nephrosis ) जैसा ही होता है। इसके कारण पर्याप्त शोफ हो जाता है तथा मूत्र द्वारा श्विति का खूब उत्सर्ग होता है। द्विभुजायलविमेदाभ पिण्ड ( double refractive lipoid bodies) असंख्य निर्मोकों के साथ निकलती हैं परन्तु उनके कारण कोई हानि विशेष नहीं होती। वृक्त की क्रियाशक्ति में कोई फर्क नहीं आता। परन्तु फिरंगनाशक उपचार का प्रभाव जादू सा कार्य करता है। यहाँ तक कि शोफ और ओजःमेह ( albuminuria ) दो दिन में ही रफूचक्कर हो जाते हैं। यह रोग मारक नहीं होता। जो भी रुग्ण देखे जा सके हैं उनमें वृक्कोत्कर्ष या वृक्करुजा का नालिकीय विहास ( tubular degeneration of nephrosis) पाया गया है। साथ में वृक्कनालिकाओं में सुकुन्तलाणु भी उपस्थित देखे गये हैं। बहिरन्तर्भवफिरंगावस्था का वृकपाक बहुत ही कम मिलता है जब वह मिलता है तो उसके साथ वृक्क का मण्डाभ रोग (amyloid disease of the kidney) भी रहता है। यह वृक्कपाक शुद्ध गुच्छकीय वृक्कपाक (glomerulo-nephritis) होता है जिसमें साधारण प्राथमिक विक्षत गुच्छिकाओं या जूटों में मिलते हैं तथा नालिकाओं में द्वितीयक परिवर्तन मिलते हैं वैसे ही परिवर्तन वृक्त के अन्तरालित अति में भी होते हैं। ये विक्षत फिरंग के अन्य विक्षतों से पृथक होते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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