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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०८ विकृतिविज्ञान महाधमनीक दल ( aortic cusps ) पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है परन्तु महाधमनी बलय थोड़ा खिंच या फैल अवश्य जाता है इस कारण महाधमनीक अकार्यकरता ( aortic incompetence ) इस रोग में बहुधा देखी जाती है। महा. धमनी की ग्रन्थियाँ या कोष्ठों के निर्माण का प्रधान हेतु उसके मध्यचोल में स्थित प्रत्यास्थ ऊति ( elastic tissue ) का नाश हुआ करता है। बहुधा उरःफलक के नीचे रोगी को शूल हुआ करता है जिसका कारण महाधमनी के मूल में स्थित उति का व्रणशोथ माना जा सकता है। इसी व्रणशोथ के कारण हृत्प्रदेश में संकोच ( constriction ) या जकड़ने का सा अनुभव होना था इस संकोच का वाम बाहु की ओर जाते हुए प्रतीत होना आदि देखा जाता है। हृदय की किरीटिका धमनियों के अन्तश्छद के सूजन के कारण हृदय को रक्तपूर्ति सहसा रोकी जा सकती है और जो तुरत मृत्यु का कारण बन सकती है। फिरंगिक धमनीपाक जैसा कि हम पूर्व ही प्रकट कर चुके हैं महाधमनी को छोड़कर फिरंग के द्वारा गृहीत दूसरा स्थान मस्तिष्क की वाहिनियों में होता है जिसे सर्वप्रथम सन् १८७४ ई० में हुब्नर ने बतलाया था। फिरंग द्वारा उत्पन्न विक्षत तानिकाओं की क्षुद्र धमनियों में बहुत स्पष्ट देखने में आते हैं । जब प्रचलनासंगति या पृष्ठीयकाय (tabes dorsalis) नामक रोग हो या फिरंगजन्य सर्वाङ्गघात हो या मस्तिष्कसुषुम्ना फिरंग हो तो ये विक्षत अवश्य मिलते हैं। यही नहीं, जब इन रोगों में से कोई भी नहीं होता तब भी तानिकाओं की तुन्द्र धमनियों में इतस्ततः दस पाँच ऐसे विक्षत देखे जा सकते हैं। ये विक्षत मस्तिष्कीय फिरंगार्बुद के समीप बहुत स्पष्टतया देखने में आते हैं। बाह्यचोल की लसवाहिनियों में सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति के कारण मुख्य विक्षत एक प्रकार का परिधमनीपाक ( periarteritis) होता है। इसके कारण धमनी चारों ओर से लसीकोशाओं तथा प्ररसकोशाओं के कटिबन्ध से घिरी रहती है। वहाँ से आगे उपसर्ग मध्यचोल में प्रवेश करता है जिसके कारण उसकी मांसपेशीय तन्तुओं में अपोपक्षय होने लगता है तथा अन्तश्छद में स्पष्ट और एक बराबर स्थूलन होने लगता है जिसके कारण धमनी सुषिरक संकुचित हो जाता है और इसी को अभिलोपी धमन्यन्तश्छदपाक (endarteritis obliterans ) संज्ञा दी जाती है। यह प्रथम विक्षत ( primary lesion) नहीं है अपि तु बाह्यचोलों में हुए परिवर्तनों के परिणामस्वरूप द्वितीयक प्रतिक्रिया ( secondary reaction) है। ज्यों ज्यों अन्तश्छदीय स्थूलन बढ़ता जाता है सुषिरक छोटा पड़ता जाता है यहाँ तक कि एक समय एक घनास्र उसके मुख को बन्द कर देता है। यहाँ महाधमनी की तरह सिध्मीय स्थूलन नहीं होता इस कारण वाहिन्य ग्रन्थियों के बनने का प्रश्न ही नहीं उठता। मुख बन्द हो जाने के कारण धमनी मस्तिष्क के जिस भाग को रक्त पहुँचा रही थी वहाँ रक्त का पहुँचना रुक जाता है और रक्तविहीन वह मस्तिष्कक्षेत्र अपुष्ट हो जाता है और अनेक मस्तिष्क फिरंग में देखे जाने वाले लक्षण देखने में आते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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