SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ६०३ है अपि तु अस्थिनिकुल्या ( Haversian canal ) के मुखों पर भी पर्याप्त मात्रा में होती है। इस नई ऊति के कारण निकुल्या में जो आतति उत्पन्न होती है उसी के कारण रोगी रातभर अस्थि-भेदक शूल के कारण तड़पता रहता है। प्रभावित पर्यस्थि के नीचे जो अस्थि रहती है उसका कणनऊति की उपस्थिति के कारण सबसे पहले विरलन होने लगता है पर क्योंकि फिरंग में विरलन के स्थान पर जारठ्य का प्राधान्य रहता है इस कारण कणनऊति के द्वारा विरलीकरण का कार्य थोड़ी देर होकर रुक जाता है और उसके स्थान पर अस्थिरुह या अस्थिकृत आकर नई अस्थि बनाना आरम्भ कर देते हैं इस कणनऊति को भी अस्थि में बदल देते हैं। इनके द्वारा ठोस और भारी अस्थि बनती है । __ आगे चलकर फिरंगावंदीय पर्यस्थपाक (gummatous periostitis ) हो जाता है । फूले हुए भाग का केन्द्र विहासित होने लगता है। इस विहास का कारण अभिलोपी धमन्यन्तश्छदपाक हो सकता है। फिरंगार्बुद त्वचा में होकर व्रण बना सकता है । जब व्रण से चर्मल पीतवर्ण का निर्मोक बह जाता है तो नष्ट हुई अस्थि स्पष्टतः दिखाई देने लगती है। प्रसर अस्थिपाक (diffuse osteitis) इसे प्रसर अस्थिपर्यस्थपाक (diffuse osteoperiostitis) भी कहते हैं। प्रसर अस्थिपाक का प्रभाव सम्पूर्ण अस्थि पर पर्यस्थि से मजक तक तथा एक सन्धायीकास्थि से दूसरी तक देखा जाता है। इसमें प्रक्रिया पूर्ववत् ही रहती है अर्थात् कणनऊति बनती है वह अस्थि का विरलन करती है फिर अस्थिरुह मिलकर अस्थि में जारठ्य उत्पन्न कर देते हैं । इसके कारण सम्पूर्ण अस्थिदण्ड स्थूल हो जाता है अस्थिनिकुल्या में अस्थि की घनता बढ़ जाती है तथा मजक गुहा अभिलुप्त हो जाती है। इसके कारण सम्पूर्ण अस्थि भारी और घन हो जाती है। ____ अस्थि में जो यह परिवर्तन चलते रहते हैं उनके कारण घोर वेदना होती रहती है जो रात्रि में और उग्ररूप धारण कर लेती है। इसमें फिरंगार्बुदीय अस्थिपाक होता है परन्तु उसका व्रणन धरातल पर नहीं होता। पृष्ठवश ( spine ) में फिरंग होने पर वह प्रसर अस्थिपाक का ही रूप धारण करती है और कई कशेरुकाएँ स्थूल और कठिन हो जाती हैं । कहीं कहीं पर फिरंगार्बुद भी बनता है और वह फूट कर यक्ष्मा सदृश स्वरूप धारण कर लेता है। (२) ___ सन्धिफिरंग ( Syphilis of the joints ) सन्धिगत यक्ष्मा जितनी महत्वपूर्ण है उसकी तुलना में सन्धिगत फिरंग नगण्य है। आभ्यन्तर (द्वितीयावस्था) और बहिरन्तर्भव (तृतीयावस्था) दोनों में ही फिरंग का थोड़ा या बहुत सन्धियों पर प्रभाव पड़ता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy