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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग bones ) कहलाती हैं इन कलात्मक अस्थियों में जहाँ अस्थीयन केन्द्र ( centres of ossification ) होते हैं वहाँ कहीं तो नवीन अस्थि अधिक बनती है और एक भाग का उत्थन ( bossing ) कर देती है तथा कहीं पर अस्थि का विरलन हो जाता है जिसके कारण करोटिकार्य देखने को मिलता है। सहज फिरंग में ४ प्रकार की विकृतियाँ बहुत करके मिलती हैं :१. करोटिगत परिवर्तन ( changes in the eranium ) २. फिरंगिक अस्थिशिरपाक ( syphilitic epiphysitis ) ३. फिरंगिक अंगुलिपर्वपाक ( syphilitic dactylitis ) ४. नासानति और तालुछिद्रण (saddle nose and perforated palate) करोटिगत परिवर्तन करोटि की अस्थियों में दो प्रकार के विक्षत देखे जाते हैं, एक को पर्यस्थग्रन्थिका (periosteal node ) कहते हैं और दूसरे को प्रसर अस्थिपाक (diffuse osteitis )। पर्यस्थग्रन्थिकाएँ सहजफिरंग में संमित तथा अनेक मिलती हैं। ये स्थानिक शोथ मात्र होती हैं जो पूर्वकपालास्थि या पार्श्वकपालास्थियों पर ब्रह्मरन्ध्र ( anterior fontanelle ) के चारों ओर देखा जाता है और जिसे हम 'उत्थन' कह चुके हैं। प्रारम्भ में यह नई बनी हड्डी छिद्रिष्ठ ( spongy ) होती है जो शनैः शनैः जरठ अस्थि का रूप धारण कर लेती है। अवाप्तफिरंग की पर्यस्थग्रन्थिका कभी. अस्थि में परिणत नहीं होती परन्तु यहाँ वह होती हुई अवश्य ही देखी जाती है। छिद्रिष्ठ अस्थि कभी-कभी मृदु ही बनी रहती है और मुख्य अस्थि का अपरदन कर देती है जिसके कारण वह भी छिद्रित हो जा सकती है और करोटि के अन्दर एक आरपार छेद हो सकता है पर प्रायः छेद न होकर वहाँ की आकृति कृमिदष्ट ( worm eaten ) अवश्य हो जाती है। यदि करोटि में फिरंगार्बुद का निर्माण होने लगे तो निस्सन्देह उसमें छेद हो जा सकता है। प्रसर अस्थिपाक के कारण करोटि की अस्थियाँ मोटी या स्थूल तथा कठिन हो जाती हैं । कहीं काठिन्य और कहीं वैरल्य ये दो लक्षण सहजफिरंग पीडित करोटि में बहुधा देखने को मिलते हैं। कहीं कहीं अभिलोपी धमन्यन्तः पाकादि के कारण जहाँ इन अस्थियों की रक्तपूर्ति में बाधा पड़ती है तो कई आकार के मृतास्थिलव ( sequestra ) भी देखे जा सकते हैं। फिरंगिक अस्थिशिरपाक साधारणतः जवास्थि या ऊर्वस्थि का अस्थिशिर एक चमकीले धूसर वर्ण की रेखामात्रा होती है। पर जब फिरंग के कारण उसमें पाक होता है तो वह चौडी, विषम, दन्तुर ( toothed ), पारान्ध, आपीत श्वेत वर्ण की पट्टी का रूप धारण कर लती है । यह देखने के लिए कि शिशु की मृत्यु सहजफिरंग से हुई है मृत्यूत्तर परीक्षा करने पर जानुसन्धि से कुछ ऊपर या नीचे जंघास्थि या ऊर्वस्थि के अस्थिशिर को देखा जाता है यदि वह साधारण धूसर रेखा हो तो सन्देह गलत तथा यदि वह ५१, ५२ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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