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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ५८५ इस अवस्था में केवल वहाँ व्रणवस्तु रेखाएँ ( Panot's cicatrices ) मिलेंगी। ये रेखाएँ मुख, तालु, ग्रसनी में भी मिल सकती हैं। (२) तालु में छिद्र हो सकता है। (३) करोटि बेडौल हो जाती है। (४) नासा चिपटी हो जाती है ( saddle nose )। (५) अन्तर्जङ्घास्थियाँ तलवार के समान वक्र और चपटी ( sabre bladed ) हो जाती हैं। (६) श्वेतमण्डलपाक कम हो जाता है पर धुंधलापन शेष रहता है तारामण्डल पाक के कारण दृष्टि कम रह जाती है। (७) कान में बाधिर्य हो जाता है। (८) दाँत नोकीले छोटे और दन्तुर हो जाते हैं। (९) सहज फिरंगी का शरीर दुर्बल, पतला, कमजोर होता है मानसिकशक्ति के विकसित न होने के कारण वह मन्दबुद्धि, पागल या बुद्धू हो सकता है। (१०) सहजफिरंगी स्त्री में गर्भपातादि लक्षण मिलते हैं। (११) सहजफिरंगी पुरुष वा स्त्री फिरंगपीडित सन्तानोत्पत्ति कर सकते हैं और यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी इसी प्रकार चलता रह सकता है। सहजफिरंग का कुछ चित्रण करने के पश्चात् अब हम मुख्य रोग का वर्णन उपस्थिति करते हैं। इसे हम स्वकृत फिरंग या अवाप्त फिरंग ( acquired syphilis) किसी एक नाम से पुकार सकते हैं। अवाप्त फिरंग जैसा कि पूर्व ही स्पष्ट कर चुके हैं। अवाप्त फिरंग की चार अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें हम बाह्य फिरंग, आभ्यन्तर फिरंग, बहिरन्तर्भव फिरंग तथा नाडीफिरंग कह सकते हैं। नाडीफिरंग का अन्तर्भाव बहिरन्तर्भव फिरंग में भी किया जा सकता है पर सुविधा इसी में है कि हम इस चतुर्थ प्रकार को पृथक् ही से समझे रहें। बाह्यफिरङ्ग ( Primary syphilis) तत्र वाह्यः फिरंगः स्याद् विस्फोट सदृशोऽल्परुक् । स्फुटितो व्रणवद् वैद्यैः सुखसाध्योऽप्यसौ मतः॥ (भावप्रकाश) वहाँ एक बाह्यफिरंग होता है जिसमें विस्फोट के समान गांठे उठती हैं जिनमें अल्पवेदना होती है उनके फूटने पर वण के समान चिकित्सा करने से लाभ होता है। उपरोक्त श्लोक का यही भावार्थ है। परन्तु इससे बाह्यफिरंग की सम्पूर्ण विकृति का चित्र अपने सामने उपस्थित नहीं होता है । उसे समझने के लिए हमें आधुनिक तत्त्ववेत्ताओं की सेवा अवश्यमेव करनी पड़ेगी। ____ यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि जहाँ होकर सुकुन्तलाणु शरीर की ऊतियों में प्रवेश करते हैं वहाँ वे प्राथमिक विक्षत ( primary lesion ) अवश्य निर्माण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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