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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ पच्यमानो विवर्णस्तु रागी बस्तिरिवाततः । स्फुटतीव सनिस्तोदः साङ्गमर्दविजृम्भिकः ॥ संरम्भारुचिदाद्दोषातृ ज्वरानिद्रतान्वितः । स्त्यानं विष्यन्दयत्याज्यं व्रणवत्स्पर्शनासहः ॥ (अ. हृ. सू. अ. २९-३,४ ) व्रणशोथ की द्वितीयावस्था पच्यमानावस्था या विदग्धावस्था कहलाती है इसमें - विविध वेदनाएँ ( all sorts of pains ) – जैसे सुई चुभना, चींटी द्वारा काटना, चींटियों का सा चलना, शस्त्र द्वारा काटना, डण्डे से पीटना, भाले से भेदना, हाथ से दबाना, अङ्गुलियों से मरोड़ना आदि इतनी देखी जाती हैं कि रोगी बेचैन है । १७ विविध दाह ( burning sensation ) - ऐसा लगता है कि मानो कोई चार या आग रखकर स्थान को जला रहा हो, पार्श्व में या एक स्थान पर या सम्पूर्ण में जलन मचती है, विच्छू के काटने सरीखी दाह के कारण बैठने खड़े होने या लेटने में चैन नहीं मिलता, स्फुटन और तोद पर्याप्त होता है । शोफ ( swelling ) - जैसे पानी से भरकर बस्ति फूल जाती है या हवा से पेट फूल जाता है । उस प्रकार का खूब शोथ हो जाता है । त्वग्वैवर्ण्य ( decoloration of the skin ) - त्वचा का वर्ण बदल जाता है तथा लाल हो जाता है । 1 विविध शारीरिक लक्षण ( & number of physical symptoms ) - भी प्रकट होते हैं जिनमें अरुचि, दाह, तृष्णा, ज्वर, अनिद्रता (insomnia) मुख्य हैं । उपरोक्त वर्णन रोगी के व्रणशोथ की पच्यमानावस्था का एक नैदानिक चित्रण ( clinical picture ) मात्र है । इस समय क्षतिग्रस्त ऊतियों तक पर्याप्त जल पहुंच जाता है । केशालों के अन्तश्छद विदीर्ण होकर रक्तरस और रक्तस्थ कोशाओं के बहिर्गमन की व्यवस्था कर देते हैं । पुरुन्यष्टिकोशा सीमा बन्द करके जीवाणुओं से संग्राम प्रारम्भ कर देते हैं । पर्याप्त रक्तागम से स्थान लाल और गर्म हो जाता है जला - धिक्य के कारण ऊतियों में तनाव पड़ता है और संज्ञावह नाडियों के अग्र भाग पर भार पड़ता है जिसके कारण अनेक प्रकार की दुस्सह वेदनाएँ रोगी को व्यथित करती हुई उसकी नींद को ताक में रख देती हैं। उसकी घबराहट बढ़ जाती है, ज्वर उत्पन्न हो जाता है, प्यास लगती है । For Private and Personal Use Only शोथ की पक्वावस्था ( Suppuration ) - इसे पूयीभवन की अवस्था कह सकते हैं । पूयीभवन एक ऐसा कार्य है जिसमें ऊति-मृत्यु, सितकोशाओं की सञ्चिति तथा प्रोभूजांशिक उदासर्गों द्वारा आत्मपाचन ( autolysis by proteolysic ferments ) ये तीन क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं । पूय ( pus ) का मुख्य कारण पुष्टिकोशा है । पूय उसी का नाम है जिसमें यह कोशा बहुत बड़े परिमाण में मिलता है । ग्रीन ने पूय की परिभाषा करते हुए लिखा है-pus is therefore a collection of dead polymorphonuclear leucocytes in the fluid of an inflammatory exudate — पूय मृत पुरुखण्डन्यष्टि
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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