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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ( ९ ) उपवृक्क ग्रन्थियों पर यक्ष्मा का प्रभाव ( एडीसनामय ) उपवृक्क ग्रन्थियों ( adrenal glands ) के बाह्यक ( cortex ) में होने वाला एडीसन द्वारा घोषित एक लक्षण समूह ( syndrome) एडीसनामय (Addison's disease) के नाम से पुकारा जाता है। इसमें उत्तरोत्तर बलहानि ( asthenia ) हो जाती है, रक्तनिपीड कम रहता है, त्वचा पर कालि ( melanin ) नामक रंगा चढ़ जाता है और वही रंगा मुख वा योनि की श्लेष्मलकला में भी मिलता है । वमन और अतीसार तथा उदरशूल विशेष रूप से देखा जाता है । रोग धीरे-धीरे प्रारम्भ होता है रोगी पहले अधिक थकावट अनुभव करता है और आगे चलकर यही थकावट ( श्रान्ति ) भीषण रूप धारण कर लेती है । यह स्त्रियों और बालकों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक देखा जाता है कुछ भी हो, यह रोग सदैव घातक ही होता है ऐसा लोगों का आजतक का अनुभव है । मा के प्रकरण में हमने इस रोग को इसलिए लिया है कि विकृतिशास्त्रियों का मत है कि उपवृक्कों के बाह्यक विनाश का मुख्य कारण यक्ष्माकिलाटीयन होता है । यक्ष्मा ८० प्रतिशत रोगियों के रोग का कारण बनती हुई देखी गई है । यह रोग जीर्णस्वरूप का होता है और मृत्यु तब होती है जब विषरक्तता अत्यधिक बढ़ जाती है तथा बाह्य का बहुत अधिक नाश हो जाता है । इस रोग का कारण यचमकिलाटीयन होता है न कि सर्वाङ्गीण श्यामाकसम यक्ष्मा । उपवृक्क ग्रन्थियों तक रोग रक्तधारा द्वारा पहुँचता है तथा इसकी प्राथमिक नाभि अन्यन्त्र होती है । यह नाभि कहाँ होती है यह हूँढना बहुत कठिन होता है । कभी-कभी शवपरीक्षा करने पर उपवृक्क ग्रन्थियों में तो किलाटीयन पाया गया पर अन्यत्र कहीं भी यक्ष्मा का नाम निशान भी देखने को नहीं मिला जो बहुत आश्चर्यजनक होते हुए भी इस रोग में विशेष रूप से देखा जाता है । ऐसा मालूम पड़ता है कि यक्ष्मा का कारण मानवीय यचमकवकवेन्राणु होता है । गध्य प्रकार इसमें भाग नहीं लेता नहीं तो यह रोग बालकों में अधिक मिलता जिन्हें गव्य कवकवेत्राणु का उपसर्ग अधिकतर होता है । ५६३ For Private and Personal Use Only प्रसङ्गात् हम एडीसानामय कारक अन्य हेतुओं का भी उल्लेख करेंगे जो यक्ष्मा से पृथक् होते हैं । उनमें उपवृक्क बालक का अपोषक्षय या अपुष्टि ( atrophy ) एक और बहुत महत्त्वपूर्ण है । यह कहा जाता है कि एडीसनामय से पीडित १०० रोगियों में ८० को वह यक्ष्मा के कारण और २० को अपुष्टि के कारण यह रोग होता है । पर यह साधारण अपुष्टि होगी इसमें सन्देह करने का पर्याप्त अवसर है । कुछ का कथन है कि जिस प्रकार वैषिक यकृत्पाक ( toxic hepatitis ) में ऊति मृत्यु होती है वैसी ही यहाँ होती होगी और वे इसको तीव्र, अनुतीव्र तथा जीर्ण विषरक्तता में विभक्त करते हैं । कुछ ऐसा समझते हैं कि इस ऊतिनाश का कारण पाश्चात्य तीव्रौषध . प्रयोग है कुछ इसका सम्बन्ध फिरंग से जोड़ना चाहते हैं । पर अपुष्टि की वास्तविक
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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