SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा अब ऐसा माना जाता है कि आन्त्रिक यच्मोपसर्ग उत्तरजात प्रकार का बहुत अधिक देखा जाता है यद्यपि पहले इतना होता होगा यह माना नहीं जाता था। आन्त्र में यक्ष्मविकृति किस प्रकार होती है इसे निश्चितरूपेण बतलाना अभीतक इसलिए कठिन है कि इस सम्बन्ध के प्रयोग जिन प्राणियों पर किए जा सकते हैं उनमें यक्ष्मवणों की उत्पत्ति करना स्वयं एक बड़ी समस्या रहती है कामेट का कथन है कि आन्त्रगत विक्षत अन्तःशल्यिक ( embolic) होते हैं जिसके कारण आन्त्र प्राचीर में छोटे-छोटे ऋणात्र बन जाते हैं। परन्तु ब्वायड की दृष्टि में यह उपसर्ग जितना आन्त्रजनित ( enterogenous ) है उतना रक्तजनित नहीं। जब फुफ्फुस से अत्यधिक मात्रा में यक्ष्मदण्डाणु आन्त्र में जाते हैं तो वे वहाँ आन्त्र की श्लेष्मल कला के घनिष्ट सम्पर्क में आकर व्रणित हो जाते होंगे। जब किसी प्राणी की उपत्वचा में यमदण्डाणुओं का अन्तःक्षेप कर दिया जावे तो हम उसकी आन्त्र में यक्ष्मव्रणन देखते हैं उसे देखकर उपसर्ग को रक्तजनित मान लिया जा सकता है पर यह इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उस प्राणी के यकृत् में असंख्य क्षुद्र यमविक्षत देखे जाते हैं जो पित्तप्रणाली में फटते होंगे और पित्त में होकर आन्त्र में गमन करते होंगे। मैडलर और ससानो ने यह जानने के लिए ८ वण्टमूषों का उपयोग किया कि उनकी आँतों में उपसर्ग पहुँचता है कि नहीं। उन्होंने उन आठों प्राणियों में उपत्वचा के नीचे यक्ष्मादण्डाणुओं का अन्तःक्षेप कर दिया और देखा कि केवल एक वण्टमूष में आन्त्रिक वणन हुआ है तथा अन्यों में नहीं हुआ। उन्होंने शेष सातों वण्टमूषों की आन्त्र की लसाभ ऊति का पुनरीक्षण किया और देखा कि सभी में यक्ष्माविक्षत और यमदण्डाणु दोनों ही है। सबसे पहले जो विक्षत हुआ वह एक व्रणशोथात्मक स्त्राव था जो उन आन्त्र लसग्रन्थियों से होता था जो बहुत अधिक गहराई में लसाभ उति में पैठी हुई थीं। इसी कारण उनका लसोत्सारण होता नहीं था। यहाँ से भक्षिकोशा आकर उन्हें उठाकर उपरिष्ठ धरातल पर ले आते थे और उपश्लेष्मलकला में उनके विक्षत बन जाते थे। इन विक्षतों के ऊपर की श्लेष्मलकला कहीं-कहीं मृत होकर अपने स्थान से उखड़ जाती है जिसके कारण एक व्रण प्रकट हो जाता है परन्तु अधिकांश स्थानों पर वह ज्यों की त्यों रहती है इस कारण यह ज्ञात नहीं हो पाता कि वहाँ व्रण है या नहीं। ___ आन्त्र की लसवहाएं काफी चौड़ी होती हैं इस कारण भक्षिकोशा यक्ष्मादण्डाणुओं को अपने गर्भ में छिपाये हुए बड़ी सरलता के साथ उनमें होकर गमन करते हैं और आन्त्रनिबन्धनीक लसग्रन्थकों में पहुँच जाते हैं। वहाँ पहुँचते ही सबसे पहला उनका यही काम है कि इन ग्रन्थकों ( nodes ) को उपसृष्ट कर दें। उपरोक्तवर्णन से दो बातें स्पष्टतया प्रकट हो जाती हैं : -आन्त्र का प्रारम्भिक या प्राथमिक विक्षत आन्त्रव्रणकारक सदैव नहीं होता। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy