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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५४ विकृतिविज्ञान हो सकता है और उसके कारण उदुम्बर ( bullae ) बन सकते हैं । यदि इन उदुम्बरों में से कोई फूट गया तो वातोरस् ( pneumothorax ) होकर प्राणनाश भी हो सकता है । कोमनालीय बदमा कोमवृक्ष ( bronchial tree ) में यक्ष्मा के बड़े प्रसिद्ध विक्षत देखे जाते हैं । विक्षत सदैव क्लोमनाल के उपश्लेष्मलस्तर में बना करते हैं और पार्श्वों में अधिच्छद के नीचे-नीचे फैलते रहते हैं। आगे चलकर उनका एक व्रण ( ulcer ) का रूप बन जाता है । वहाँ पर कणनऊति का एक पुञ्ज भी बन जाता है । वह कोमनाल के मार्ग का अवरोध कर देता है और इसके परिणामस्वरूप प्रभावित भाग अवपतित ( collapsed ) हो जाता है या वहाँ पर प्रसर जीर्ण व्रणशोथ बनकर वहाँ तन्तूरकर्ष कर सकता है और उसे संकीर्ण बना सकता है । इन परिवर्तनों का स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि यक्ष्मादण्डाणुओं का उत्सर्ग ( discharge ) रुक जाता है । कोमनाल से सुषिरक के संकीर्ण होने के कारण उरःक्षत ( bronchiectasis ) भी बनता हुआ देखा जा सकता है । लक्षण - विक्षतसम्बन्ध अब हम फुफ्फुसीय यक्ष्मा से ग्रसित रोगी में साधारणतः पाये जाने वाले लक्षणों के कारणों का पता चलाते हैं । सामान्य लक्षण - यक्ष्मा पीडित व्यक्ति को जो अनेक सामान्य लक्षण देखने में आते हैं उनमें ज्वर, कार्श्य, भारहास, रात्रिप्रस्वेदादि कुछ हैं । इन लक्षणों के होने का प्रधान कारण यक्ष्मा दण्डाण्विक विष का शरीर द्वारा प्रचूषण कर लेना माना जाता है 1 ज्वर - जो ९९ से १०४ - ५ अंश तक देखा जाता है वह रोगाणुओं के प्रचूषण का परिणाम है। शुद्ध यक्ष्मा के साथ साथ कुछ अन्य उपसर्ग भी रहकर ज्वर बुलाते हैं ब्वायड ने इसी को अपने वाक्य में लिखा है— 'The hectic type of fever, in which the temperature fluctuates wildly between subnormal and 104° or 105° F isdue to septic absorption, a mixed infection having taken the place of the pure tuberculous one'. यहाँ उसे यह ध्यान नहीं रहा कि दोष दूष्यों की असंतुलितावस्था के कारण कोष्ठानि के बाहर आने से यह ज्वर उत्पन्न होता है । काश पश्चिमी विद्वान् प्राचीन खोजों का लाभ उठा पाते ! वह उसे यचमजन्य नहीं मानता और अन्य उपसर्गों के मत्थे मढ़ता है क्योंकि उसे ऐसे अनेक बालकों का ज्ञान है जिनके शरीर में प्राथमिक सक्रिय विक्षत होते हुए भी उन्हें ज्वर नहीं होता क्योंकि वहां दोष दूष्य सन्तुलित रहता है और कोष्ठानि को अधिक प्रज्वलित होने की आवश्यकता नहीं होती । भारहास, रात्रिमस्वेद और अरक्तता ( anaemia ) आदि को प्रतीचीन विज्ञजन यचमादण्डाणुओं के विष के द्वारा उत्पन्न हुआ मानते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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