SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 611
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४४ विकृतिविज्ञान मिटने लगती है अभिरंजन करने पर उन पर प्रसरतया ( diffusely ) रंग चढ़ता है तथा उनकी न्यष्टियाँ लुप्त होने लगती हैं। एक प्रकार के इस आतंची नाश ( coagulation necrosis ) के वहाँ होने के कारण यचिमका की सब रचना अभिलुप्त हो जाती है और यघिमका एक शुष्ककणीय दधिक पदार्थ ( dry granular cheesy material ) में परिणत हो जाती है। उपसि ( eosin ) से रंगने पर यदिमका में बाह्यभाग में असित नीललसीकोशा होते हैं, उसके परिणाह में पाण्डुर अधिच्छदाभकोशा रहते हैं जिनमें महाकोशा उपस्थित भी रह सकते हैं और अनुपस्थित भी तथा उसका केन्द्र एक समरस पदार्थ से भरा रहता है जिसका वर्ण लाल होता है। यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि यक्ष्मा के साथ सदैव किलाटीयन हुआ ही करे। यदि अल्प उग्र यक्ष्मादण्डाणु अल्पमात्र हों या शारीरिक प्रतिरोधक शक्ति तीव्र हो तो जो परमचयिक यक्ष्मा होती है उसमें किलाटीयन बिल्कुल भी नहीं मिलता । किलाटीयन के कर्ता २ होते हैं। एक यक्ष्मादण्डाणु का विप और दूसरा विक्षत की रक्तहीनता ( avascularity of the tubercle ) मैडलर ने इस विषय का अध्ययन करके बतलाया है कि अधिच्छदाभकोशाओं की दुर्गति से प्रभावित होकर परम कारुणिक बहुन्यष्टिकोशा सर्वप्रथम उस पदार्थ में पहुँचते जिसका किलाटीयन होना है। वहां वे यह जान कर कि उनका कोरा आशीर्वाद उनकी रक्षा करने में असमर्थ है तो वे दबे पांव लौट आते हैं अर्थात् किलाटीयन प्रारम्भ होते समय वे वहां निश्चित रूप से अनुपस्थित मिलते हैं। ____ आगे किलाटीय विक्षत का क्या होता है इसका विचार करना है। हो सकता है कि वह विक्षत पूर्णतया लुप्त हो जाय और अपना चिह्न तक न छोड़े। ऐसा हम प्रायः देखते हैं। जिन रोगियों की यक्ष्मानाशक चिकित्सा की जाती है उनके क्षरश्मि चित्र में पहले विक्षत देखे जाते हैं जो बाद में बिल्कुल नहीं रहते। कई रोगियों के उदरच्छद में एकबार शस्त्रकर्म करने पर अनेक यदिमकाएँ दृष्टिगोचर होती हैं पर वे ही यक्ष्माहर चिकित्सोपरान्त और दूसरी बार शस्त्रकर्म करने पर पूर्णतः विलुप्त मिलती हैं तो किलाटीय विक्षत का एक गमन उसका मूलोच्छेद भी हो सकता है। किलाटीय विक्षत का दूसरा मार्ग उसमें चूने का भरना या चूर्णीयन है। विक्षत में चूना भर दिया जाता है और तान्तव ऊति उसे चारों ओर से ढंक लेती है। ऐसा लगता है कि मानो मरा हुआ साँप या रस्सी का टुकड़ावत् वह हो गया हो । परन्तु सावधान ! इस विक्षत के गर्भ में सजीव यक्ष्मादण्डाणु रहते हैं जो किसी भी समय फूट सकते और रोगी को साँप की तरह डस सकते हैं !! ब्वायड ने इसके लिए सोये हुए कुत्ते का उदाहरण दिया है। ___एक और मार्ग यक्ष्मादण्डाणुओं का अन्तश्छदीय कोशाओं द्वारा ले जाया जाना है और पास ही नवीन विक्षतों का विकसित करना है जो भी बहुधा देखने में आता है। दो प्रकार की यचिमकाओं का ज्ञान मानवीय श्यामाकसम यक्ष्मा में रिच तथा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy