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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३६ विकृतिविज्ञान प्रन्थियों के उपसर्ग में फुफ्फुस में तथा आन्त्रनिबन्धनीक ग्रन्थियों के प्रभावित होने पर आंत में रोग का प्राथमिक आसन होगा यह तुरत ध्यान में आ जाता है । इन स्थानों की सुरक्षा का दायित्व मुख्यतः वहाँ स्थित अति पर ही होता है इस कारण प्रथम सुरक्षापति ( first line of defense ) का निर्माण यक्ष्मादण्डाणुओं के प्रति लस उति (lymphoid tissue ) द्वारा किया जाता है। लसाभ ऊति का सम्बन्ध लसग्रन्थियों से होने के कारण प्रादेशिक लसग्रन्थिकाएँ (regional lymph nodes ) सुरक्षा की दूसरी तथा सुदृढपति का निर्माण करती हैं। लसग्रन्थिकाओं में शोथ होते ही सम्पूर्ण शरीर में यक्ष्मोपसर्ग व्याप्त हो जाता है और १३ से ३ मास के भीतर शूकर कालकवलित हो जाता है। घटनाओं का जो अनुक्रम एक प्राणी में यच्मोपसर्ग के कारण देखा जाता है वह मनुष्यों की अपेक्षा बहुत भिन्न होता है। यदि पहले अन्तःक्षेप के एक दो सप्ताह पश्चात् दूसरा अन्तःक्षेपण कर दिया जावे तो थोड़े ही दिनों में वहाँ पर एक जरठ या कठिन ( indurated ) क्षेत्र बन जाता है जो शीघ्र ही निर्मोकयुक्त ( sloughing) हो जाता है और जो व्रण बनता है वह अतिशीघ्र और स्थायीरूप से रोपित हो जाता है तथा प्रादेशिक लसग्रन्थिकाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इस घटना को काकघटना ( koch phenomenon ) कहते हैं। प्राथमिक उपसर्ग से यह द्वितीयक या उत्तरजात उपसर्ग दो दृष्टियों से भिन्न होता है। एक यह कि इसमें ऊतिनाश अधिक होता है तथा दूसरा यह कि यहाँ उपसर्ग स्थानसीमित होता है। इन दो दृष्टियों की कर्जी भी दो विभिन्न कलाएँ ( mechanism ) हैं। एक कला का नाम है अनूर्जिक (कफरक्तीय) व्रणशोथ (allergic inflammation ) जो अत्यधिक उतिनाश का कारण होती है। दूसरी कला का नाम है प्रतीकारक पिण्डों का निर्माण जिनमें प्रसमूहियाँ (agglutinins ) तथा आस्वादियाँ (opsonins) मुख्य हैं। ये प्रतीकार पिण्ड (immune bodies) यक्ष्मादण्डाणुओं को एक स्थान पर ही सीमित रखते हैं। यह सम्पूर्ण ज्ञान आज हमें आर्नोल्ड रिच द्वारा प्राप्त हुआ है। उपरोक्त ज्ञान से हमें मात्रा की अल्पाधिक कल्पना हो जानी चाहिए। यदि किसी गोवत्स ( calf ) को थोड़ी मात्रा में उग्र यक्ष्मादण्डाणु (गव्य प्रकार ) अन्तःक्षिप्त कर दिया जावे तो जो विक्षत उत्पन्न होते हैं वे एक स्थान पर मर्यादित रहते हैं, शीघ्र ही उनका प्रतीपगमन ( retrogression ) आरम्भ हो जाता है जिसके कारण वे तन्वीयित और चूर्णीयित ( fibrosed & calcified ) हो जाते हैं। यदि दण्डाणुओं की मध्यम मात्रा का उपयोग किया गया तो परिणाम विषम होते हैं और यदि अधिक मात्रा में यक्ष्मादण्डाणुओं का अन्तःक्षेप किया गया तो सर्वाङ्गीण यक्ष्मा से अभिभूत होता हुआ गोवत्स कुछ सप्ताहों से लेकर कुछ महीनों में कालकवलित हो जाता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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