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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५२५ इस प्रकार २ प्रकार के उपसर्ग हमें, सन्धिगत यक्ष्मा के देखने को मिलते हैं एक वह जिसमें समीपस्थ अस्थि में उपस्थित यक्ष्मानाभि से उपास्थिशिर ( metaphysis ) को फोड़ कर उपसर्गकारी दण्डाणु सन्धिश्लेष्मलगुहा ( synovial cavity ) में चले आवें । यह प्रकार बहुत करके देखा जाता है । बालक और युवक सभी इसी के कारण प्रायः व्यथित होते हैं। इनकी वंक्षणसन्धि ( hip joint ) में पहले पहल यह रोग देखा जाता है उसके पश्चात् गुल्फ सन्धि ( ankle joint ) कूपरसन्धि ( elbow joint ) तथा अंससन्धि ( shoulder joint ) में देखने में आता है । बात यह है कि बालकों में वंक्षणसन्धिस्थ उर्वस्थि का अस्थिशिर अनस्थीयित ( unossified ) होता है जो यक्ष्मदण्डाणुओं का प्रतिरोध करने में पूर्णतः अशक्त होने के कारण वे वंक्षणसन्धि में सरलतापूर्वक प्रविष्ट हो जाते हैं। कभी-कभी अस्थिगत यक्ष्मविद्रधि अस्थिशिर में होकर सन्धि में सहसा फूट पड़ती है और यक्ष्म पदार्थ बहुत बड़ी मात्रा में सन्धि में प्रवेश कर देता है। इससे रोगी ज्वरयुक्त हो जाता है तथा उसे वेदना होने लगती है। ऐसी सन्धि को 'तीव्र यक्ष्मसन्धि' (acute tuberculous joint ) कह कर पुकारते हैं। _दूसरा प्रकार जिसमें उपसर्ग अस्थि से न आकर सीधा रक्तधारा से आता है और सन्धि में सन्धि के चारों ओर स्थित वाहिनी वलय ( circulous vasculosus ) के रक्त द्वारा सन्धिश्लेष्मलगुहा में ठहर जाता है। यह प्रकार बहुधा वयस्कों, प्रौढों तथा वृद्धों में देखा जाता है । यह प्रायः जानुसन्धि ( knee joint ) में विशेष करके होता है। यह उपसर्ग पहले की अपेक्षा सौम्यस्वरूप का होता है। इसमें सन्धिकला में सिध्मिक स्थौल्य (patchy thickening ) देखी जाती है इस कारण इसे 'कोनिगग्रन्थिकसन्धिकलीय यक्ष्मा' ( konig's nodular synovial tuber. culosis) कहा जाता है । कोई भी प्रकार हो प्रायशः रोग का आरम्भ शनैः शनैः होता है जहाँ रोग अस्थि के पश्चात् होता है वहाँ यह और धीरे धीरे बनता है क्योंकि वहाँ पहले से ही शूल होता रहता है, मांसक्षय होता रहता है, सौम्य सन्धि लापाक होता है तथा थोड़ा उत्स्यन्दन ( effusion) पाया जाता है जब तक कि वास्तव में यक्ष्मसन्धिपाक होता है । उपसर्ग के सन्धि में पहुँचने पर प्रारम्भ में तर्कुरूप शोथ (fusiform swelling ), सन्धि-गति का परिसीमन ( limitation ) तथा वेदना ये तीन लक्षण प्रमुखतया देखे जाते है सन्धिगति के परिसीमन से प्रारम्म में कुछ सन्धि की सुरक्षा हो जाती है। शूल का प्रधान कारण सन्धायीकास्थि का अपरदन है। यदि गति कम होगी तो शूल भी कम होगा, गति अधिक होने पर शूलाधिक्य होता है। आगे चलकर जब रोग बहुत बढ़ जाता है तो स्नायुओं ( ligaments ) के टूट फूट जाने तथा सन्धायीकास्थियों के विनाश से सन्धि विदूषित हो जाती है तथा उसकी गति में अन्तर आ जाता है । सन्धि विच्युति (dislocation) प्रायः मिल जाती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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