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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५२१ ( metaphysis ) में होती है। जिस मार्ग से यक्ष्मादण्डाणु अस्थि में प्रविष्ट हुआ उसके अनुसार विक्षत का स्थान अस्थि में बदल सकता है। पोषणी धमनी और बाहिनीचक्र ( circulus vasculosus ) ये दो मार्ग हैं। वाहिनीचक्र सन्धि के ऊपर रहता है यह प्रायः सन्धिकला के अन्दर रहता है और उसकी शाखाएँ अस्थिशीर्ष तक जाती हैं कभी कभी उपास्थिशिर भी सन्धिकला के अन्दर रहता है और वहाँ भी शाखाएँ पहुँचती हैं। इन रक्त की वाहिनियों के साथ लसीकावाहिनियों की शाखाएँ भी रहती हैं । यदि उपसर्ग सन्धि द्वारा प्रविष्ट होता है तो वह इन्हीं लसीका वाहिनियों द्वारा अस्थिशिर या उपास्थिशिर को जाता है और अस्थि का यह छिदिष्ठ भाग ही उससे प्रभावित होता है। कभी कभी सन्धायीकास्थियों में यक्ष्मोपसर्ग लग जाता है जिसके कारण वहाँ से सीधे अस्थि में भी रोग का प्रवेश हो सकता है। जब अस्थि में या अस्थिशिर या उपास्थिशिर में यक्ष्मादण्डाणु प्रविष्ट हो जाता है तो सर्वप्रथम श्यामाकसम ( miliary ) यक्ष्मिकाएं उत्पन्न होती हैं उसके चारों ओर विशिष्ट यक्ष्मकणनऊति ( tuberculous granulation tissue ) परिवारित ( surrounded ) हो जाती है। यदि दण्डाणु की उग्रता बहुत अधिक न हुई तो उसके भी चारों ओर सघन तान्तव ऊति परिवेष्टित हो जाती है। इसी बाह्यभाग में अस्थीय दण्डिकाएँ ( bony trabeculae ) सघनीभूत हो जाती हैं और इस प्रक्षोभक प्रतिक्रिया द्वारा अस्थि के अवकाशों को उसी प्रकार भर देती हैं जिस प्रकार कि किसी मृदुल ऊति में तान्तव उति भर जाती हो ।जहाँ विक्षत के बाहर की ओर अस्थि का स्थूलन चलता रहता है वहाँ विक्षत के केन्द्रिय भाग में अस्थिकृन्तक अपना कार्य करते रहते हैं और अस्थि को विरल करते रहते हैं। उनके उत्तेजित होने का मुख्य कारण है रक्ताधिक्ययुक्त यक्ष्मकणन उति । इस अस्थिविरलन को यक्ष्म अस्थ्य शना ( tuberculous caries of the bone ) कहते हैं । इस प्रकार की अस्थ्यशना में कणनऊति का निर्माण अत्यधिक होता है तथा किलाटीय ऊतिमृत्यु यदि हुई तो बहुत ही कम देखी जाती है। __परन्तु यदि तन्तूत्कर्ष द्वारा उपसर्ग का स्थान सीमित न कर दिया गया तो वह खूब फैलने लगता है और उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है और परिणाम उसका किलाटीयन में ही होता है । यक्ष्मकणनऊति तान्तवऊति के क्षेत्र में भी फैल जाती है और उसका स्थान ले लेती है तथा अस्थिजारठ्य ( sclerosis ) जो होता रहता है उसका भी स्थान ले लेती है। इसके कारण यह जारठ्य केन्द्रिय भाग से कुछ दूर पर (हटकर) होने लगता है। धीरे-धीरे यह प्रक्रिया अस्थि के बाह्य धरातल तक आ जाती है; जब ऐसा होता है तो अस्थि के ऊपर स्थित मृदुल उतियाँ भी उपसृष्ट हो जाती हैं जिसका परिणाम यह होता है कि नाडीव्रण ( sinus ) बन जाता है जिसका मुख त्वचा पर आकर खुलता हुआ देखा जाता है। किलाटीयन के कारण यदि किसी अस्थि का कोई टुकड़ा गल कर अलग हो जाता For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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