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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१६ विकृतिविज्ञान और शरीर में यक्ष्माविरोधी शक्ति का निर्माण होना प्रारम्भ हो जाता है और भाग्यवशात् ऐसा ही प्रायः देखने में भी आता है। शैशवकाल में यक्ष्मा की थोड़ी-थोड़ी मात्राओं की प्राप्ति शिशु या बालक में यक्ष्मा के प्रति प्रतीकारिता तथा अनुहृषता या अनूर्जा में वृद्धि कर देती है। इसी प्रतीकारिता के कारण ही जो बाल्यकाल में प्राप्त हो जाती है आगे चलकर तारुण्यकाल में मरक गति ( mortality rate) में कमी आ जाती है। अनुवर्ती या द्वितीय उपसर्गों के कारण एक अनुहृष ( sensitised ) व्यक्ति के फुफ्फुस में काक घटना ( koch's phenomenon ) घटा करती है। इसमें विक्षत सदैव किसी एक फुफ्फुस के अग्र पर स्थित होता है पर स्थानीय लसग्रन्थियाँ उपसृष्ट नहीं होती। स्थानिक अतिमृत्यु तथा विवरीभवन ( cavitation ) एक सामान्य वस्तु है। पर यहाँ भी तन्तूत्कर्ष द्वारा द्रुतगति से रोपण हो सकता है। कोशीय प्रतिक्रिया और ऊतिमृत्यु अनूर्जा ( allergy ) के द्वारा होती है और यह सुरक्षात्मक कदापि नहीं हैं। विक्षत का एक स्थान पर सीमित रहना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है और उसका कारण पहले उपसगों के कारण अवाप्त प्रतीकारिता (aequired immunity ) का शरीर के पास संचित रहना ही है। यदि बाल्यकालीन अवाप्त प्रतीकारिता अधिक है तो द्वितीय उपसर्ग पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा उस अवस्था में विक्षत का रोपण तन्तूत्कर्ष द्वारा हो जाता है पर यदि अवाप्त प्रतीकारिता कम है तो उपसर्ग दबकर गुप्त ( latent ) हो जावेगा तथा किलाटीय शोष ( caseous phthisis ) का रूप धारण कर लेगा। द्वितीय उपसर्ग की गति सदैव जीर्ण ( chronic ) रहती है। पर विक्षत तीव्र या सक्रिय (active ) भी मिल सकते हैं। सक्रियता जिस कारण से सम्भव है वह है शरीर में प्रतीकारिता का अभाव जिसका अर्थ है व्यक्ति को प्राथमिक विक्षत नहीं हो सका यानी उसे बाल्यकाल में यक्ष्मोपसर्ग का आभास नहीं मिला। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि अवाप्त प्रतीकारिता शरीर में संरक्षित रहने में असमर्थता का अनुभव करती है। अवाप्त प्रतीकारिता की शक्ति की ति में असमर्थता प्रायः प्रतिलोमक्षय में ही सम्भव है जब व्यक्ति निरन्तर शुक्रनाश कर शरीर की इस प्रचण्डशक्ति के साथ रोगों के प्रति प्रतीकारक शारीरिक शक्ति का विनाश कर देता है। कुछ भी हो यदि एकबार भी शरीर में यक्ष्मा के प्रति प्रतीकारिता का जन्म हा गया तो वह निस्सन्देह एकबार तीन और उग्रस्वरूपी तयाक्रमण का भी सामना कर लेगी। अवाप्त प्रतीकारिता प्राप्त करने का गुप्त रहस्य है कि बाल्यकाल में बहुत से, बहत बार थोड़े-थोड़े यच्मोपसर्ग के साथ बालक का सम्पर्क स्थापित होने दिया जाय । इससे न तो फुफ्फुस में कोई विक्षत बनेगा पर यक्ष्मारोधक शक्ति अवश्य बन जायगी। परन्तु इस शक्ति के साथ एक दुर्गुण भी उत्पन्न होता है जिसे हम अनूजिक हृषकरण ( allergic sensitisation ) कहते हैं । यक्ष्मा के कारण जो भी ऊतियों में विनाश देखा जाता है वह अनूजिक प्रतिक्रिया के द्वारा ही होता है ऐसा विद्वान् For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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