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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा ५०१ कोई प्राणी सेवन करता है कि उसके मुख द्वारा गव्य प्रकार के यक्ष्मा दण्डाणु उदर में पहुँच जाते हैं । इंगलैण्ड में डेयरी फार्मों में ३० प्रतिशत गायों को गोयच्मा होता है इस कारण डेयरी का दुग्ध सेवन करने से यक्ष्मा के बढ़ने का भय रहता है। इसी कारण प्रतिवर्ष ३००० शिशु उस देश में गव्य यक्ष्मा के कारण मर जाते हैं । मुख द्वारा प्रविष्ट यचमादण्डाणु मुख या महास्रोत की श्लेष्मलकला द्वारा घुसता है । यह आवश्यक नहीं कि जहाँ होकर यह घुसे वहाँ कोई स्थानिक विक्षत बनावे इस कारण बिना उस प्रकार का विक्षत उत्पन्न किये यह जीवाणु श्लेष्मलकला में चला जाता है । यदि श्लेष्मलकला पहले से कुछ कटी हुई या सव्रण हुई तो इसे अच्छा मार्ग मिल जाता है। मुख में प्रवेश का सुगम द्वार तुण्डिकाग्रन्थि ( tonsil) होता है । यद्यपि तुण्डिकाओं के द्वारा यक्ष्मादण्डाणु प्रवेश करता है परन्तु यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुण्डिकी यक्ष्मा नामक व्याधि कदाचित् ही कभी देखी जाती हो । तुण्डिका यह दण्डाणु तुण्डिकीय तथा ग्रैविक लसग्रन्थियों में चला जाता है जहाँ यह यक्ष्म लसग्रन्थिपाक ( tuberculous lymphadenitis ) उत्पन्न कर देता है । ग्रिफिथ की दृष्टि में ५० प्रतिशत तथा मिलर की दृष्टि में ९० प्रतिशत रुग्णों में जैविक उपसर्ग गव्य यचमादण्डाणु द्वारा उत्पन्न किया जाता है । जो यमादण्डाणु तुण्डिकाओं में प्रवेश न कर सीधे उदरस्थ हो जाते हैं वे महास्रोतीय श्लेमलकला में बिना कोई स्थानिक विक्षत उत्पन्न किये ही प्रविष्ट हो जाते हैं । यचमादण्डाणु श्लेष्मलकला में होकर दोनों अवस्थाओं में जा सकते हैं । एक तो जब कि श्लेष्मलकला क्षत-विक्षत या कटा फटा हो और दूसरे जब वह पूर्ण स्वस्थ हो । अर्थात् ज्यों ही वह श्लेष्मलकला के सान्निध्य में आता है वह उसमें प्रवेश कर जाता है । महास्रोत्तीय श्लेष्मलकला द्वारा पहुँचे हुए यच्मादण्डाणु आन्त्रनिबन्धनीक लसग्रन्थियों में अपना अड्डा जमाते हैं । उनमें भी जो अधोशेषान्त्रक ( lower ileum ) को तथा शेषान्त्रक-उण्डुकीय कोण ( ileocaecal angle ) कालसोत्सारण ( drain ) करते हैं वहाँ इनका अच्छा जमाव हो जाता है । इन यक्ष्मादण्डाणुओं के प्रकार निर्णय का उल्लेख करते हुए ग्रिफिथ ने बतलाया है कि ८२ प्रतिशत गव्य यक्ष्मादण्डाणु वहाँ पर मिलते हैं । आन्त्रनिबन्धनीक ( mesenteric ) लसग्रन्थियों में यक्ष्मादण्डाणु की उपस्थिति के कारण आन्त्रनिबन्धनीक कार्य ( tabes mesenterica ) तथा उसके पश्चात् उदरच्छदपाक होता हुआ देखा जा सकता है । इस प्रकार सर्वप्रथम यचम- आन्त्रवण बनता है उससे यक्ष्म आन्त्रनिबन्धनीक कार्श्य होता है उसके द्वारा अन्त यक्ष्म उदरच्छदपाक देखा जाता है । यह भी सम्भव है कि बिना प्रथम यक्ष्म आन्त्रवण उत्पन्न किए रोगाणु सीधे यक्ष्म आन्त्रनिबन्धनीक का उत्पन्न कर दें। कामेट का आन्त्रवितत एक रक्तजन्य उपसर्ग का परिणाम होता है। यम दण्डाणुओं की नाभि हो और वहाँ से रक्त के द्वारा वे विक्षत ( primary lesion ) बना दें। वयस्कों के आन्त्र के प्रथम विक्षत सदैव कथन है कि प्रारम्भिक किसी एक स्थान पर आकर आन्त्र में प्रथम For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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