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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८८ विकृतिविज्ञान को सूचित करती है। इसका दण्डाणु शरीरस्थ लसाभ ऊति की ओर विशेष करके आकृष्ट हुआ करता है। इसलिए शरीर की लसाभ ऊतियों में इनका अवस्थान होकर वहाँ शोथोत्पत्ति हुआ करती है। यह विकृति आन्त्र और प्लीहा में सर्वाधिक देखी जाती है । इस विकृति का निम्न स्वरूप होता है: १-उपसर्गोपरान्त लसाभ ऊति की वृद्धि होना। २-आन्त्रज्वर दण्डाणुओं की उपस्थिति के कारण हुई प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप __स्थूलभक्षों और प्ररस कोशाओं की वृद्धि होना। ३-ऊति में परमरक्तता होना । ४-ऊति में शोथ होना। ५-इस व्रणशोथ के परिणामस्वरूप वहाँ ग्रन्थिकाओं का निर्माण हो जाना। अब हम अंगविशेष में होने वाली आन्त्रज्वरजन्य विकृति का वर्णन करते हैं। आन्त्र-लघु और बृहत् दोनों ही आँतों की श्लेष्मलकला में जहाँ लसाभ ऊति पाई जाती है। वहीं रोग का भी केन्द्र रहा करता है। लसाभ उति के कुछ क्षेत्र स्थूल आन्त्र में बिखरे हुए तथा लघ्वन्त्र में एक स्थान पर झुण्ड बनाए रहते हैं। पहले को एकल लसात्मकग्रन्थिका (solitary lymphatic nodules) कहते हैं। दूसरे को पेयरीयसिध्म या प्रश्न (peyer's patcles) कहते हैं । आन्त्रिकज्वर में इन्हीं प्रश्न तथा ग्रन्थिकाओं में रोगोत्पत्ति तथा विकृति देखी जाती है। विकृति लघु आँत के अन्तिम भाग में तथा स्थूल आँत में केवल उण्डुक में मिलती है। आन्त्रगत विकृति रोगावस्था के अनुसार बदलती रहती है। प्रति सप्ताह विकृति में कुछ न कुछ परिवर्तन हो जाया करता है। यह परिवर्तन निम्न प्रकार का होता है १. व्रणशोथावस्था-लसात्मक ग्रन और ग्रन्थिकाओं में कोशाओं का प्रगुणन होता है। वाहिनियाँ विस्फारित हो जाती हैं। इस विस्फार के कारण वे आन्त्र के सुषिरक में प्रत्यक्ष देखी जा सकती हैं। _____२. संकोथावस्था-कोशीय प्रगुणन के बढ़ने के कारण उसमें रक्तसंवहन ठीक से नहीं होने के कारण वहाँ रक्त और प्राणवायु दोनों की अल्पता ही देखी जाती है। रोग के कीड़ों का विष और भी कष्टोत्पादन कर देता है इसके कारण लसाभ ऊति में कोथोत्पत्ति या सड़न पैदा हो जाती है। ___३. संत्रणावस्था-लसाभ उति तीसरे सप्ताह में अच्छे प्रकार पक जाती है और व्रणशोथ अपनी उच्चतम अवस्था को पहुँच जाता है जिसके परिणामस्वरूप उसमें व्रण बन जाते हैं। व्रणशोथ लसाभ ऊति के आसपास भी होता है पर उसमें व्रण नहीं बनते वहाँ उपशम हो जाता है पर लसाम उति का कुछ भाग सड़ या गल जाता है इस सड़े गले भाग के निकलने के कारण ही व्रणोत्पत्ति हुआ करती है। आन्त्रस्थ पेयरीय ग्रन्थियों में बने व्रण गोलाकार होते हैं गोला कुछ लम्बोतरा होता है और उसकी लम्बाई आन्त्र की लम्बाई की दिशा में रहती है। ये आन्त्रनिबन्धिनी For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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