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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४८१ किया जा सकता है। जिस प्रकार कालाजार में प्हवृद्धि होती है वैसी ही कई सेर तक की प्लीहा भी देखी जा सकती है। तृतीयक विषमज्वर में ऐसी स्थिति प्रायः देखने में आती है। विषमज्वर के कारण बने प्लीहोदर में प्लीहा बहुत ही कोमल हो जाती है और थोड़े आघात से भी विदीर्ण होकर मृत्यु का कारण बन सकती है अतः भारतवर्ष में जहाँ असंख्य प्लीहोदरी विषमज्वर द्वारा ही बनते हैं बहुत ही सौम्य और मार्दव के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता है । साधारण से घूसे के द्वारा भी प्राणनाश का कारण विषमज्वरजन्य प्लीहोदर हो सकता है। ____अण्वीक्ष से देखने पर तीव्रज्वरी की प्लीहा में अधिरक्तता भी मिलती है । प्लैहमजक में विषमकीटाणूपसृष्ट लाल कणों की भरमार देखी जा सकती है यहाँ विभक्तक ( scizont ) और व्यवायक (gamete ) प्लीहा प्रदेश में जितने प्राप्त होते हैं उतने अन्यत्र कहीं भी नहीं मिला करते। पूर्वोक्त रागक ( हीमोझाइन) भी यहाँ प्रचुर परिमाण में देखा जा सकता है। रागक के कण स्थूलभक्षों, स्रोतासाभों (sinusoids ) तथा केशालों के अन्तःस्तरों में अन्तर्निहित मिलते हैं। रागक के कण रोगारम्भ काल में बहुत थोड़े होते हैं पर ज्यों-ज्यों रोग जीर्ण होता जाता है इनके पुञ्ज या समूह बनते हुए देखे जाने लगते हैं। यकृत् वह दूसरा अवयव है जिसमें विषमज्वर कीटाणुओं के कारण अभिवृद्धि होती है । इस अभिवृद्धि का मुख्य कारण तो यह है कि यकृत् स्वयं जालकान्तश्छदीय संस्थान का एक अंग है और चूंकि विषमज्वर का कीटाणु जालकान्तश्छदीय संस्थान के कोशाओं में परमचय करता है अतः यकृत् के जालकान्तश्छदीय कोशा भी परमः चयित हो जाते हैं । दूसरे यकृत् में अधिरक्तता होती है तथा तीसरे इसमें हीमोझाइन नामक रागक के कणों का भी संचय होता है। इस रागक के कारण यकृत् का वर्ण भी काला हो जाया करता है। कीटाणुओं का नाश और रागक की ग्राहकता ये दोनों कार्य प्रथमतः प्लीहा के अधीन हैं। प्लीहा जब उन्हें करने में असमर्थ हो जाती है तथा पर्याप्त प्रवृद्ध हो जाती है तथा रोग भी जीर्ण खूब हो लेता है तभी यकृत् की वृद्धि देखने में आया करती है। सम्पूर्ण यकृत् के अन्दर न रागक पाया जाता है और न कीटाणु । यकृत् में जालकान्तश्छदीय संस्थान के कूफर के कोशा होते हैं। रागक और कीटाणु ये दोनों इन्हीं कोशाओं में पाये जाते हैं। ये कोशा ही वास्तव में परमचयित और प्रवृद्ध हुआ करते हैं। याकृत् कोशाओं ( hepatic cells ) में शोणायस्वि तथा पित्तरक्ति पाई जाती है। आगे चलकर अजारकरक्तता के परिणाम स्वरूप यकृत् में स्नैहिक विह्रास हो जाया करता है । मलेरिया के कारण यकृद्दाल्यूत्कर्ष का होना ग्रीन स्वीकार करता है। अस्थिमज्जा यह जालकान्तश्छदीय संस्थान का ही एक अंग है यहाँ रागक के कण और कीटाणु बहुत कम पाये जाते हैं। रक्तक्षय होने के कारण रुधिरोद्भावक ऊति की वृद्धि होकर मज्जा के कोशाओं का अपचय हो जाता है जिसका परिणाम श्वेतकाया.. ण्वपकर्ष में होता है। ४१, ४२ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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