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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७० विकृतिविज्ञान देखी जाती है उनमें भी नाश होता रहता है। त्वचा, हृत्पेशी, मस्तिष्क और अन्य अंगों की रक्तवाहिनियों में ये विकृति देखी जाया करती हैं। त्वचा में विकृति होने से विस्फोट बनते हैं जिसके कारण स्थान-स्थान पर वृक्कद्वय में मेघसम शोथ होता है । प्लीहोदर हो जाता है पर परिवृद्ध प्लीहा मृदु होती है । श्वसनसंस्थान के वायुमार्गों में प्रसेक का होना तथा अधस्तल रक्ताधिक्य ( hypostatic congestion ) भी पाया जा सकता है। कुटकी द्वारा काटने से प्रथम एक व्रण बनता है व्रण के समीप की सग्रन्थियाँ फूल जाती हैं और शरीरभर की लसग्रन्थियों में भी कुछ न कुछ सूजन पाई जाती है । हाभिवृद्धि, यकृत् हृदय वृक्कद्वयादि अंगों में भी कुछ न कुछ विकृति पाई जाती है। तन्द्रिकग्रन्थियों में यूकाजनित ग्रंथियों की तरह रक्तवहाओं के अन्तश्छद में विकृति न होकर रक्तवाहिनियों के बाह्य चोल में विकृति अधिक मिलती है तथा एकन्यष्ठीय कोशाओं की भरमार पर्याप्त मिलती है । किलनीजनित तन्द्रिक में त्वचा में बहुत अधिक विकृति होने के कारण शरीर अधिक कर्बुरित हो जाता है इसी से इसे कर्बुरित ज्वर ( spotted fever ) भी नाम दिया जाता है । मेदू और वृषणों की त्वचा का नाश तथा कोथ पाया जा सकता है । फुफ्फुसों में अधस्तलाधिरक्तता तथा न्युमोनियाँ के समान संघनता ( consolidation ) पाई जाती है । इसकी तन्द्रिक ग्रन्थियाँ अधिक स्पष्ट नहीं हुआ करती हैं । लसग्रन्थिवृद्धि, होदर, गुह्यांग की त्वचा में धमनियों और धमनिकाओं की खराबी के कारण रक्तस्रावी प्रवृत्ति पाई जा सकती है । तन्द्रिक ज्वरी के रक्त में निम्न परिवर्तन देखने में आते हैं: (१) श्वेत कायाण्वपकर्ष । ( २ ) वील फेलिक्स प्रतिक्रिया' ( Weil Felix reaction ) । ( ३ ) अस्स्यात्मक वासरमैन प्रतिक्रिया । ४. - मूषिकदंशजज्वर ( Rat - Bite fever ) - यह रोग स्पिरिल्लम माइनस या स्पाइरोकीटा मौर्सस म्यूरिस नामक वक्र जीवाणु के कारण होता है । इस जीवाणु से पहले चूहे या मूषे उपसृष्ट होते हैं जिनके बाद मनुष्य को उपसर्ग लगता है । मूषे के काटने के स्थान पर उसकी लार वहाँ गिर जाती है जिसमें इसके जीवाणु होते हैं। काटने के स्थान से लसवहा उन्हें लसग्रन्थियों तथा रक्तवहाओं में ले जाती हैं। रक्त में उनके पहुँचने पर ही रोग के लक्षण प्रगट होते हैं । जीवाणु प्लीहा में भी पहुँच १. यह प्रतिक्रिया उन दो वैज्ञानिकों के नामों के आधार पर है जिन्होंने रोगी के मूत्र में प्रोटियस वर्ग के जीवाणुओं को पाया जो अधिक घोल में उपसृष्ट प्राणियों के सीरम में अभिष्टि हो जाते हैं । सीरम के ३०००० में १० इतने तनु घोल में भी प्रतिक्रिया अस्त्यात्मक मिल चुकी । यह प्रतिक्रिया पाँचवें दिन भी मिल जाती है । २. शुक्रेणाथ पुरीषेण मूत्रेणापि नखैस्तथा । दंष्ट्राभिर्वा क्षिपन्तीह मूषिकाः पञ्चधा विषम् ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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