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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६८ विकृतिविज्ञान किसी को काटता है तो दण्डकज्वर दूसरे मनुष्य को लग सकता है। इस रोग में ज्वर रहता है अस्थियों और सन्धियों में इतना दर्द रहता है कि ऐसा लगता है मानो हड़ियाँ टूटनेवाली हैं । इसी कारण इसे हड़ीतोडज्वर (bone break fever) भी कहते हैं । इसका एक उत्कोठ भी निकलता है। इस ज्वर की तीव्रावस्था १० दिन तक रहती है उसके बाद रोगी बहुत दुर्बलता का अनुभव करता है। सम्प्राप्ति और विकृति की दृष्टि से इस ज्वर में कूपरोत्तरिकलसग्रन्थियाँ (supra trochlear lymph glands ) फूल जाते हैं। रक्त का चित्र देखने से उसके श्वेत कण कम होकर ३ से १॥ सहस्र तक हो जाते हैं कणिककायाणुओं की संख्या ४०% लसकायाणु ६०% या कुछ अधिक देखी जाती है। ज्वर उतर जाने के बाद उपसिप्रिय कोशा बढ़ जाते हैं । इस रोग से मरनेवालों की मृत्यूत्तर परीक्षा में सन्धियों के पास लसीका का उत्स्यन्दन ( effusion ), हृत्पेशीशोथ ( myocarditis ), वृक्कशोथ और मस्तुलंगपाक ( encephalitis ) पाये जाते हैं फुफ्फुस में शोथ और रक्ताधिक्य भी पाया जाता है । रोग का आक्रमण अकस्मात् होता है। ज्वर १-२ अंश बढ़कर थोड़े ही काल में १०४ तक पहुँच जाता है । ज्वर के साथ पूर्वकपाल में शूल, नेत्र, पृष्ठ, शाखाओं में सर्दी और फुरफुरी होती है। __ २-मरुमक्षिकाज्वर-( Sand hy fever )-यह एक विषाणुजन्य रोग है। यह तीन दिन रहनेवाला ज्वर है इस कारण इसका नाम त्रिदिवसीय ज्वर भी कहते हैं। फ्लेबोटोमस पपाटसी नामक मरुमक्षिकाओं के कारण यह रोग होता है। इसके आक्रमण के समय रोगी को शीत, शिरःशूल, शरीर में अङ्गमद, मुखमण्डल, नेत्र और ग्रीवा प्रदेश में लाली तथा १०४° तक ज्वर का हो जाना आदि पाये जाते हैं। ३-पीतज्वर-(Yellow fever )-यह भी एक विषाणुजन्य रोग है। यह मैक्सिको, मध्य अमेरिका, दक्षिण अमेरिका का पूर्वीतट, अफ्रीका का पश्चिमी किनारा आदि स्थानों में सीमित है। यह रोग ईडिस इजिप्टी नामक मशक के दंश से उत्पन्न होता है। मच्छरी जब पीतज्वर पीडित रोगी को प्रथम ३ दिन में कभी काट लेती है तो रोग के विषाणु उसके शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं उसके बारह दिन बाद मच्छरी में वह शक्ति आ जाती है कि वह आजीवन पीतज्वर का उपसर्ग समाज को प्रदान कर सकती है। पीतज्वर के विषाणु के कारण सर्वाधिक परिणाम यकृत् पर हुआ करता है। इसके यकृत की कोशाओं का अपजनन होता है जिसके कारण उसमें मधुजनभाव हो जाता है। रक्त के अन्दर पूर्वघनास्रि (prothrombin) की कमी हो जाती है तथा कामला उत्पन्न हो जाता है। कामला इतना उग्र होता है कि उसके कारण सम्पूर्ण शरीर और कास्थियों का वर्ण पीत हो जाता है। पूर्वधनानि की कमी के कारण रक्त का स्राव शरीर के अन्य लोगों से अधिक होने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। रक्त भी इसके कुप्रभाव से For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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