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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ विकृतिविज्ञान "णुओं द्वारा बने श्वसनक की चिकित्सा दूसरी विधि से होती है । वहाँ पैनीसिलीन व्यर्थ सिद्ध होती है। फ्रीडलैण्डर्स न्यूमोनिया स्ट्रैप्टोमायसीन द्वारा तथा विषाणुजन्य न्यूमोनिया क्लोरोमाईसिटीन द्वारा शान्त होती है । ब्राको न्यूमोनियाँ या फुफ्फुस खण्डखण्डीय श्वसनक एक बालकों को होने वाला विकार है । स्थान स्थान पर फुफ्फुस में मन्दता, बुद्बुदध्वनि ( crepitations ) तथा सद्रवशब्द ( rales ) पाए जाते हैं कभी कभी बालकों में श्वसनी फुफ्फुसपाक के सम्पूर्ण लक्षण मिल जाने पर भी वास्तव में अविराम ज्वर का मुख्य कारण आन्त्रगत उपसर्ग भी हुआ करता है । अन्नविषाणु ( salmonella ) द्वारा जो भोजन का दूषण हो जाता है वह यूरोप में द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अधिक देखने को मिलने लगा है। इसका कारण कोलाय टाइफाइड वर्ग के जीवों के द्वारा होता है । यह अन्न के द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है इसे हम अन्नविषाणूत्कर्ष ( salmonellosis ) कह सकते हैं । पके हुए सिद्ध भोजन पर मक्खी आदि बैठकर उसे दूषित करके इस रोग की उत्पत्ति करती हैं। इसमें तीव्र महास्रोतीय लक्षण बनते हैं जो कभी कभी तो बहुत गम्भीर रूप धारण कर लेते हैं । दूषित भोजन के लेने के ३६ घण्टे बाद कभी भी यह रोग देखा सकता है। पेट में मरोड़ ( cramps ) बहुत जोर से होती है। दस्त बड़े जोर से होता है जिसमें आम और रक्त मिले हुए रहते हैं। आरम्भ में इतने बार और लगातार मन आती हैं कि इस रोग का पहचानना कठिन नहीं है । एक परिवार के एक से अधिक व्यक्ति एक साथ इस रोग से पीडित हो सकते हैं । यह रोग १ सप्ताह में समाप्त हो जाता है जब कि आन्त्रिकज्वर एक सप्ताह में तो आरम्भ ही हो पाता है | अन्नविधता का पूरा ज्ञान करने के लिए दूषित खाद्य द्रव्य की प्रयोगशाला में जाँच करवाई जा सकती है । के जीवाणुजन्य ग्रहणी ( bacillary dysentery ) में भी यही चित्र उपस्थित होता है पर वहाँ दस्त में आम और रक्त अन्नविषाणूरकर्ष की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं। अपिगोलाणूकर्ष ( brucellosis ) भी एक रोग है जो अविराम ज्वर की उत्पत्ति कर सकता है । यह रोग अपिगोलाणुवर्गीय जीवों के कारण ही उत्पन्न होता है । इंगलैण्ड में यह विना औटाए हुए गोदुग्ध के कारण हो जाता है । माल्टा में बकरी दूध से इसकी उत्पत्ति होती है । इस रोग के सब सामान्य लक्षण आन्त्रिकज्वर से मिलते-जुलते हुए होते हैं। इसमें नहला देने वाला पसीना सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण है जिसे देख कर वैद्य सरलतया यह मान सकता है कि अपिगोलाणूस्कर्ष रोग कौन सा है। इस रोग में अतीसार, नहीं मिलता न उदर में आध्मान या भीतर धंस जाना भी नहीं देखने में आता । प्लीहा अवश्य बढ़ी हुई मिल सकती है । कभी-कभी बीच में रोग या ज्वर पूर्णतः शान्त भी हो जाता है । नाडीगति अनुपात से अधिक मन्द रहती है । प्रलाप इसमें होता है । इस रोग का प्रभाव जितना चिकित्सकों पर देखा जाता है उतना अन्यत्र नहीं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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