SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 514
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४४१ शूकावृतकण्ठता, कण्ठकूजन, पार्श्वशूल, कास, श्वास, हिका इन ६ लक्षणों में से किसी न किसी का वर्णन किसी न किसी ग्रन्थ में आ गया है। चरक, वाग्भट, अंजन निदान और वैद्यविनोद में कण्ठ में काँटों का सा उग आना कहा गया है। हारीत ने गले में घुरघुर शब्द और शूल बतलाया है । कण्ठ सूख जाने के कारण और तेज बुखार होने से प्यास का लगना एक सर्वविदित लक्षण है, जिसे कई आचार्यों ने माना है। चार स्थलों पर कास और उतने ही पर श्वास का उल्लेख है। कण्ठसूजन गले में कफ आने से बहुधा होता है। वाग्भट ने स्वर बैठना भी इस रोग में बतलाया है। पार्श्वशूल भी उसी की खोज है । हिक्का को अन्य मत के रूप में स्थान केवल एक जगह मिला है। जो यह बतलाता है कि सर्वसामान्य लक्षणों की दृष्टि से सन्निपात रोग में हिक्का को स्थान नहीं। सन्निपात ज्वर में रक्त या कफमिश्रित रक्त का थूकना भी सम्मिलित किया गया है। इसे चरक, वाग्भट, अंजननिदान और आयुर्वेद के रचयिताओं ने स्वीकार किया है पर सुश्रुत, सिद्ध विद्याभू , वैद्य विनोद और अन्य नामक लेखकों की दृष्टि से यह अनर्थकर लक्षण छिप दया है। इसका अर्थ यही है कि रक्तपित्त का यह लक्षण सभी रोगियों में स्थिर नहीं है। हृव्यथा या हृदय का बैठना या फेल होना या हृदय में शूल का होना एक अत्यधिक गम्भीर लक्षण है जिसे सभी मुख्य ग्रन्थकारों ने स्वीकार किया है। शरीर के मलों ( स्वेद, मूत्र, पुरीष) की सन्निपात में सदैव एक सी गति नहीं रहा करती। किसी रोगी को अधिक स्वेद आता है किसी को बिल्कुल नहीं। किसी को पेशाब बिल्कुल नहीं उतरता २-२ दिन बीत जाते हैं। किसी को थोड़ा पेशाब उतरता है किसी को बड़ी देर बाद थोड़ा उतरता है । मल की भी यही स्थिति रहती है २-४६ दिन तक टट्टी नहीं आती या देर से आती है। कभी-कभी या किसी-किसी सन्निपात में मलोत्सर्ग प्रचुरता के साथ होता है। मलोत्सर्ग क्रिया एक ही रोगी में किसी दिन अभाव से, किसी दिन अल्प, किसी दिन देर से और किसी दिन बारबार और अधिकता से देखी जा सकती है। निद्रा की स्थिति में भी पर्याप्त भेद होता है । साधारणतया रोगी दिन में तन्द्रित रहता और रात में जागा करता है। कभी वह वराबर दिन रात जाप और प्रलाप करता पड़ा रहता है। कभी वह दिन रात सोता ही देखा जाता है। कभी वही विनिद्रित और कभी विकृत निद्रित रहता है। साधारणतया निद्रा का क्रम एक रोगी में आरम्भ से अन्ततक एक सा चलता है पर कभी-कभी वह बदल भी जाता है । रोग का शमन आसानी और जल्दी से नहीं हुआ करता । रोगी के दोष पर्याप्त समय में पकते हैं। मुख, नासा, गुदादि स्रोतों में पाक की स्थिति भी बहुधा देखने में आती है। रोगी के बल में कमी आ जाती है उसका अंग शिथिल पड़ जाता है अर्थात् उसमें उत्साह का अभाव हो जाता है। पर रोग इतनी शीघ्रता से बनता है और इतना अतिपाती होता है कि इसमें जीर्ण रोगियों की सी कृशता नहीं आ पाती। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy