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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ अभिनव विकृतिविज्ञान O प्रथम अध्याय व्रणशोथ या शोफ | INFLAMMATION ] शोफ की परिभाषा करते हुए आचार्य सुश्रुत ने लिखा है। --- शोफसमुत्थाना ग्रन्थिविद्रध्यलजीप्रभृतयः प्रायेण व्याधयोऽभिहिता अनेकाकृतयः, तैर्विलक्षणः, पृथुर्ग्रथितः सम विषमो वा त्वङ्मांसस्थायी दोषसंघातः शरीरैकदेशोत्थितः शोफ इत्युच्यते । ( सु. सू. अ. १७-२ ) ग्रन्थि, विद्रधि, अलजी आदि अनेक प्रकार की उत्सेधयुक्त छोटी मोटी व्याधियों से भिन्न, विस्तृत, गांठदार, सम या विषम आकार वाला, त्वचा और मांस में स्थित, वातादि दोषों का संघात, शरीर के एक देश में उठा हुआ जो एक विशेष रोग होता है, वह शोफ कहलाता है । कहीं कोई गांठ उठ आवे या अलजी हो जिसके कारण स्थान कुछ उठा सा दिखाई दे, तो वह शोफ नहीं है, वह तो फैली सी, गँठीली सी, ऊँची नीची, दोषों का झुण्ड लेकर चलने वाली, एक स्थान पर स्थित सूजन या पाक विशेषतायुक्त होती है । वही शोफ नाम से पुकारी जाती है । माधवकर ने इसी को व्रणशोथ नाम से पुकारा है । साधारण शोथ से इसका are करने के लिए बतलाया है कि पक्कापक का जहाँ सम्बन्ध होता है वहाँ शोथ व्रणशोथ कहलाता है । एकदेशोत्थितः शोथो व्रणानां पूर्वलक्षणम् । षड्विधः स्यात् पृथक्सर्वरक्तागन्तु निमित्तजः ॥ शोथाः षडेते विज्ञेयाः प्रागुक्तैः शोथलक्षणैः । विशेषः कथ्यते चैषां पक्कापक्कादिनिश्चये ॥ ( मा. नि. ४१ ) ६ प्रकार का ( वातिक, होता है ( जिसका वर्णन पच्यमान और पक इन अर्थात् एक भाग में स्थित, व्रणों के पूर्वलक्षणों से युक्त, पैत्तिक, श्लैष्मिक, सान्निपातिक, रक्तज, आगन्तुज ) जो शोथ शोथप्रकरण में माधव ने किया है ) उसी का यहाँ पर अपक, तीन अवस्थाओं की दृष्टि से विचार किया जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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