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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४०७ इसी को बड़े सुन्दर शब्दों में गङ्गाधर ने निम्न वाक्यों में रक्खा है एतेनैतद् उक्तं भवति-प्रकृतिसमसमवायारब्धे द्वन्द्वजो सान्निपातिके वा व्याधौ प्रकृतिभूतयोर्द्वयोर्दोषयोः प्रकृतिभूतानां त्रयाणां वा दोषाणां स्वस्वकार्यरूपाण्येव लिङ्गानि भवन्ति न तु अतिरितानि । विकृतिविपमसमवायारब्धे तु तानि च तत्तद् द्विशस्रिकस्य वा दोषस्य कारणवैचित्र्यात् कोपविशेषात् विकृतिविशेषात् संयोगतो दोषाणां, स्वस्वकर्माणि मिलित्वा परिणम्यासमानजातीयानि लिङ्गानि भवन्तीति । मधुकोशटीकाकार ने इस विषय को बहुत ही धीरज के साथ समझते हुए लिखा हैप्रकृतिसमसमवायविकृतिविषमसमवाययोश्चायमर्थः-प्रकृत्या हेतु भूतया समः कारणानुरूपः समवायः कार्यकारणभावसम्बन्धः प्रकृतिसमसमवायः, कारणानुरूपं कार्यमित्यर्थः, यथा शुक्लतन्तुसमवायारब्धस्य परस्य शुक्लत्वम् । विकृत्या हेतुभूतया विषमः कारणाननुरूपः समवायो विकृतिविषमसमवायः यथा हरिद्राचूर्णसंयोगजं लौहित्यमिति।। ... श्वेततन्तु के कारण कपड़े का रंग श्वेत हो जाना प्रकृति समसमवाय का और हल्दी तथा चूने के मिलने से न पीला न श्वेत अपि तु लाल रंग का हो जाना यह विकृति विषम समवाय का उदाहरण है। अब हम प्रथम द्वन्द्वज ज्वरों के संक्षिप्त वर्णन को प्रकृति समसमवायारब्धक तथा विकृतिविषमसमवायारब्धक रूप में यथासम्भव रखने का प्रयत्न करेंगे। द्वन्द्वज ज्वर ३ प्रकार के होते हैं१. वातपित्तज्वर, २. वातश्लेष्मज्वर तथा ३. श्लेष्मपित्तज्वर । वातपित्तज्वर (१) लोमहर्षश्च दाहश्च पर्वभेदः शिरोरुजा । कण्ठास्यशोषो वमथुस्तृष्णा मूर्छा भ्रमोऽरतिः॥ स्वप्ननाशोऽतिवाक् जम्मा वातपित्तज्वराकृतिः। (चरक) (२) तृष्णा मूर्छा भ्रमो दाहः स्वप्ननाशः शिरोरुजा । कण्ठास्यशोषो वमथू रोमहषोऽरुचिस्तमः ।। ___ पर्वभेदश्च जम्भा च वातपित्तज्वराकृतिः । ( सुश्रुत १) (३) जम्भाध्मानमदोत्कम्प-पर्वभेदपरिक्षयाः । तृटप्रलापाभितापाः स्युज़रे मारुतपैत्तिके ॥ (सुश्रुत २) (४) शिरोऽतिमूविमिदाहमोहकण्ठास्यशोषारतिपर्वभेदाः। ___ उन्निद्रतातृड्भ्रमरोमहर्षा जम्माऽतिवाक्त्वं च चलात् सपित्तात् ।। ( वाग्भट ) (५) तृष्णा मूर्छा वमन कटुता चानने रूक्षता स्यात् अन्तर्दाहे वपुषि नयने रक्तता कण्ठशोषः। निद्रानाशः श्वसनशिरसोरुक्प्रभेदोऽङ्गभङ्गो रोमोद्धर्षस्तमकमिति केद्वातपित्तज्वरः स्यात् ।। (हारीत) (६) कण्ठास्यशोषस्तृणमूर्छादाहोऽस्वप्नो वमिर्धमः । तमः पर्वशिरोरुक् च वातपित्तज्वराकृतिः ।। ( अञ्जननिदान) (७) तृष्णा भ्रमो दाहशिरोरुजश्च कण्ठास्यशोषारुचिरोमहर्षाः। ___ मूतिमच्छदिविजम्भणानि निद्रात्ययो मारुतपित्तजे स्यात् ॥ (वैद्यविनोद ) (८) पवनपित्तहेतुकरसविरसजाताजीर्णजन्यामरसासृग्धातुचराद्यदोष उभयलक्षणयुक्तरोगः पवनपित्त प्रकोपज्वरः। वातपित्तज ज्वर एक द्वन्द्वज विकार है। वायुदोष शीतादिक कारणों से प्रकुपित होता है तथा पित्त ऊष्मादिक हेतुओं से प्रकोप को प्राप्त होता है दोनों के हेतुओं में जमीन आसमान का अन्तर होने के कारण यो कहिए कि एक यदि शीत है तो दूसरा उष्ण, एक यदि रूक्ष है तो दूसरा स्निग्ध और इन परस्पर विरोधा कारणों से For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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